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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास
४१ (४) विधिनियम अस्
सर्वप्रथम तृतीय अरोक्त ईश्वरवाद का सविस्तर, सयुक्तिक खण्डन किया गया है । कहा गया है कि प्राणी के सुख या दुःख स्वकृत शुभ या अशुभ कर्म के आधीन हैं । अतः संसार के प्राणियों का ईश्वर उन प्राणियों से भिन्न कोई पृथगात्मा नहीं, किन्तु सर्व प्राणी अपने-अपने ईश्वर हैं । जगत् का कोई आदिकर्ता ईश्वर है ही नहीं । प्राणियों के अपने-अपने कर्म ही सुखादि में कारण होने से कर्म ही ईश्वर है, इतना ही नहीं कर्म के कारण ही जीव प्रवृत्ति करता है और तदनुरूप फल भोगता है । इस प्रकार कर्म के प्राधान्य को स्थापित करते हुए ईश्वरवाद का खण्डन किया गया है । तत्पश्चात् आत्मा एवं कर्म में अभेद स्थापित करते हुए कहा है कि आत्मा ही कर्मरूप बनता है और कर्म ही आत्मारूप बनता है । अतः कर्म एवं आत्मा में अभेद है। जगत् के सभी चेतनाचेतन पदार्थ अन्योन्यात्म स्वरूप परिणत होते हैं । इस प्रकार यहाँ ईश्वरवाद के विरुद्ध पुरुष कर्म का स्थापन किया है ।
आचार्य मल्लवादी ने कहा है कि जिस प्रकार पुरुष के बिना कर्म की प्रवृत्ति नहीं होती है, उसी प्रकार कर्म के बिना पुरुष की प्रवृत्ति भी नहीं होती है । अतएव उनमें परस्पर सापेक्षत्व है । दोनों का कर्तृत्व भी परस्पर सापेक्ष है। एक परिणामक है तो दूसरा परिणामी है, अतएव दोनों में ऐक्य है । इसी आधार पर अन्त में सर्वैक्य सिद्ध किया गया है और सर्वसर्वात्मकता का स्थापन किया गया है।
इस नय का अन्तर्भाव संग्रहनय में होता है । इस नय का कथन है सब एक हैं, सब पदार्थ अन्योन्यात्मक होने से यह सिद्ध होता है कि "एकं सर्व सर्वं चैकम" अर्थात् एक ही सब है और सब एक है। सर्वं खलु इदं ब्रह्म इस नय का आधार-वाक्य है। नित्य सर्वात्मक द्रव्य का कथन ही इस नय का प्रतिपाद्य है । पूर्वोक्त परम्परा के अनुसार इस अर का सम्बन्ध जैन
आंगम आचारांगसूत्र के 'जे एगणामे से बहुणामे' वाक्य के साथ स्थापित किया गया है।
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ३७५.
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