________________
४२
(५) उभयम् -
चतुर्थ अर में कर्म एवं भाव की स्थापना की गई है। उसके द्वारा सर्वसर्वात्मक वाद का स्थापन भी किया गया है । अब यह प्रश्न उठता है कि यदि सर्वसर्वात्मक है तब केवल द्रव्य की ही सत्ता सिद्ध होती है किन्तु उसमें होनेवाली क्रिया भावरूप है या नहीं ? केवल द्रव्य को ही मानने पर उसमें क्रिया की उपपत्ति कैसे होगी ? इस प्रकार अनेक प्रश्न उपस्थित करके द्रव्य ही परमार्थ स्वरूप है ऐसा जो चतुर्थ अर का मन्तव्य है उसका खण्डन किया गया है । द्रव्य तथा क्रिया दोनों स्वतन्त्र पदार्थ हैं ऐसा उभय नय का मन्तव्य यहाँ स्थापित किया गया है ।
उभय अर का अर्थ है विधि-नियम । यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि विधि नियम रूप चतुर्थ अर और इस अर में अन्तर है । चतुर्थ अर का अर्थ है विधि का नियम अर्थात् विधि का निषेध है, जबकि पञ्चम अर विधिनियम-उभयात्मकता को सिद्ध करता है । विधि-नियम उभय का अर्थ है वस्तु में द्रव्य एवं क्रिया पर्याय उभय की स्वीकृति । द्रव्य और क्रिया रूप दो भिन्न वस्तुओं का स्वीकार ही प्रस्तुत नय का कथन है । इस नय में द्रव्य और क्रिया-पर्याय, दोनों को पदार्थ - स्वरूप स्वीकृत किया गया है । द्रव्यशून्य क्रिया नहीं होती है, अपितु द्रव्य की क्रिया होती है, अतः द्रव्य और क्रिया दोनों को वस्तु-स्वरूप स्वीकार करना आवश्यक है, अन्यथा द्रव्यं भवति इस वाक्य में पुनरुक्ति दोष आयेगा । इस नय का तात्पर्य यह है कि द्रव्य और क्रिया का तादात्म्य है ।
द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
इस नय को नैगम नय में समाविष्ट किया गया है नैगम नय द्रव्यार्थिक नय है । आ० मल्लवादी ने इस अर का सम्बन्ध भगवतीसूत्र के "अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमति (१.३.३२) के साथ जोड़ा है । १
(६) उभयविधि अस्
इस अर में पञ्चम अर में स्थापित किए गए द्रव्य एवं क्रिया दोनों को
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ४१५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org