________________
६०
द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
अपरिणत गर्भ का भी जन्म देखा जाता है । शीतऋतु, ग्रीष्मऋतु एवं वर्षाऋतु आदि काल का आगमन भी उचित काल के अभाव में नहीं होता है। अतः उपाधिभूत कालों के प्रति भी काल ही कारण है । स्वर्ग या नरक भी काल के बिना नहीं होता, कहने का अभिप्राय यह है कि संसार में जो भी कार्य होता है, उसमें से कोई भी कार्य उचित काल के अभाव में नहीं होता । अतः काल ही सबका कारण है । काल से भिन्न पदार्थ भी कार्य का कारण होता है यह असत्य है क्योंकि काल से अन्य पदार्थ अन्यथा सिद्ध हो जाते हैं ।
काल उत्पन्न पदार्थों का पाक करता है अर्थात् उत्पन्न हो जाने पर वस्तु का जो संवर्धन होता है वह काल से ही होता है । वही अनुकूल नूतन पर्यायों को उपस्थित कर उनके योग से उत्पन्न वस्तु को उपचित करता है । काल उत्पन्न वस्तु का संहार करता है। अन्य कारणों को अर्थात् कारण माने जानेवाले अन्य पदार्थों के सप्त अर्थात् निद्रापन्न रहने पर काल ही कार्यों के सम्बन्ध में जाग्रत रहता है, अर्थात् कार्य के आधार पर ही उत्पादानार्थ सव्यापार होता है । इसलिए सृष्टि, स्थिति और प्रलय के हेतुभूत काल का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता३ । स्थाली और मूंग तथा अग्नि आदि सामग्री रहेने पर भी जब तक कारणभूत काल उपस्थित नहीं होता तब तक पाक नहीं होता है। यदि यह कहा जाए कि मूंग का परिपाक संपन्न होने से पूर्व विलक्षण अग्नि संयोग का अभाव रहता है और इसी कारण मूंग का पाक नहीं होता है, अत: मूंग के पाक के प्रति काल के विशेष को कारण मानना निरर्थक है । किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि संयोग के प्रति भी प्रश्न हो सकता है कि वह
१. न कालव्यतिरेकेण गर्भकालशुभादिकम् । यत्किञ्चिज्जायते लोके तदसौ कारणं किल ।।
-शास्त्रवार्तासमुच्चय, स्त० २, १६५, पृ० ४५. २. म० 'शां० व०', अ. २८, ३२,३३. ३. कालः पचति भूतानि कालः संहरति प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः
॥-शा० वा० स० स्त० २, १६६, पृ० ४६. द्वादशारं नयचक्रम्, पृ०२१८, काल एव हि भूतानि काल: संहारसम्भवौ । स्वपन्नपि स जागति कालो हि दुरतिक्रमः ||
-द्वा० न० पृ० २१९ ४. किञ्च कालाहते नैव मुद्गपक्तिरपीष्यते । स्थाल्यादिसंनिधानेऽपि ततः कालादसौ मता ॥
___-शा० वा० स० स्त० २, १६७, पृ० ४६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org