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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
आगम प्रमाण में ज्ञान का आधार तो ऐन्द्रिक या अतीन्द्रिय अनुभूतियाँ ही होती हैं किन्तु उन कथनों का प्रामाण्य स्वीकार करने के लिए श्रद्धा का तत्त्व ही प्रमुख होता है । इस प्रकार ज्ञान के क्षेत्र में तीन प्रमुख तत्त्व होते हैं । अनुभूति, तर्कबुद्धि और आस्था । भारतीय न्याय में जो तीन प्रमुख प्रमाण माने गए हैं वे इन्हीं तीन तत्त्वों पर आधारित हैं । प्रत्यक्ष प्रमाण का आधार अनुभूति है । यद्यपि अनुभूति ऐन्द्रिक और अतीन्द्रिय दोनों हो सकती है । अनुमान का आधार तर्कबुद्धि और आगम या शब्द प्रमाण का आधार आस्था या श्रद्धा हो सकती है । इस प्रकार मानवीय ज्ञान के आधार के रूप में अनुभूति, तर्क और श्रद्धा के तत्त्व हैं ।
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दार्शनिकों में यद्यपि मानवीय ज्ञान के आधार के रूप में इन तत्त्वों के स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं है किन्तु इन तीनों में कौन-सा तत्त्व प्रमाणभूत है ? इस प्रश्न को लेकर दार्शनिक जगत् में एक विवादात्मक स्थिति बनी रही है । अनेक अवसरों पर इन तीनों के आधार पर प्राप्त ज्ञान में परस्पर विरोध पाया जाता है। ऐसी परिस्थिति में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप में उठता है कि इनमें से किस को प्रमाण माना जाए और किसे अप्रमाण । अनुभूति और तर्क तथा तर्क और श्रद्धा के विरोध का प्रश्न दर्शन जगत् में प्राचीन काल से बहुत चर्चित रहा है । जहाँ अनुभववादी दार्शनिकों ने अनुभूति की प्रामाणिकता को स्वीकार किया वहाँ बुद्धिवादी परम्परा में अनुभूति में भ्रान्ति की संभावना को सिद्ध करके तर्कबुद्धि को ही एकमात्र ज्ञान का आधार माना है । इसी कारण प्राचीन काल से आधुनिक युग तक दर्शन के क्षेत्र में अनुभववादी और बुद्धिवादी दार्शनिकों की स्वतन्त्र परम्पराएँ चलती रही हैं । आधुनिक पाश्चात्य दार्शनिकों में एक ओर रेने देकार्त, स्पीनोजा आदि दार्शनिकों की परम्परा रही तो दूसरी ओर लॉक, बर्कले आदि अनुभववादी दार्शनिकों की परम्परा भी रही है । यद्यपि पश्चिम में काण्ट जैसे कुछ दार्शनिक ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने इन दोनों परम्पराओं के मध्य समन्वय के सूत्र खोजे हैं। यद्यपि वह समन्वय कितना सफल हुआ यह कहना आज भी कठिन है । पश्चिम के समकालीन दार्शनिकों में भी अनुभूति बनाम तर्कबुद्धि का प्रश्न अभी भी बहुचर्चित है ।
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