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अनुभव और बुद्धिवाद की समस्या और न तो विशेष है, क्योंकि सामान्य के अभाव में विशेष को और विशेष के अभाव में सामान्य को सिद्ध नहीं किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में वस्तुस्वरूप का जो भी निर्धारण बुद्धि द्वारा होता है वह विकल्पात्मक ही होता है । अतः बुद्धि को वस्तुतत्त्व का ग्राहक नहीं माना जा सकता । जैसे पूर्वापर भेदवाली प्रकृति, प्रकृति से भिन्न अन्य कोई पदार्थ, नित्य पदार्थ या क्षणिक पदार्थ ही सत् है । ऐसा भिन्न-भिन्न मतावलम्बियों का मन्तव्य है जो परस्पर विरोधात्मक और खण्डनात्मक है । अत: उससे अनपेक्षित वस्तु जो लोकवाद अर्थात् जनसाधारण द्वारा ग्राह्य है वही सत् है । अर्थात् एक ही सत् को विभिन्न दार्शनिक अपने-अपने दृष्टिकोण से एक या अनेक, नित्य या अनित्य, प्रकृतिस्वरूप या प्रकृति से भिन्न, भेदात्मक या अभेदात्मक इस प्रकार विभिन्न विरोधी मन्तव्यों के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इससे सत् के वास्तविक स्वरूप का बोध नहीं हो पाता अत: लोक-ग्राह्य वस्तुतत्त्व ही श्रेय है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अनुभववादी चिन्तन की दृष्टि में वस्तु का जो अनुभूति-ग्राह्य स्वरूप है वही सत् है ।
अनुभववादी विचारक न केवल तर्क-बुद्धि के प्रामाण्य को अस्वीकार करते हैं अपितु आगम के प्रामाण्य को भी स्वीकार नहीं करते हैं । उनका कहना है कि वेद या श्रुति क्या है? क्या वह अनुभूतियों से भिन्न कोई बात कहती है ? यदि वेद अनुभूति की ही बात करते हैं तब अनुभूति से भिन्न उनका अपना कोई प्रामाण्य ही नहीं रह जाता और यदि वे अनुभूति से भिन्न कोई प्रतिपादन करते हैं तो अनुभूति के विरोधी होने के कारण उनका प्रामाण्य स्वीकार नहीं किया जा सकता । पुनः वेद (श्रुति) का ज्ञान किसके द्वारा होता है ? यदि वह ज्ञान अनुभूत्याश्रित है तब अनुभूति से भिन्न उसका प्रामाण्य मानने का कोई अर्थ
१. यदि सामान्यम्, तत् आत्मा न भवति, अनेकार्थविषयत्वात् सामान्यस्य, अथात्मा ततो न
सामान्यम् एकत्वादात्मनः, सेनाहस्तिनोरिव । वही, पृ० ११-१२ २. पूर्वं यथालोकप्रसिद्धमनपेक्षितपूर्वापर प्रभेदं 'प्रकृतिः' इति वा 'अन्यत्' इति वा वर्तमानं
नित्यं न प्रलयभाक् सद् वर्तते भावो यो सो तदैव वस्त्विति प्रतिपत्तव्यम् ।। वही पृ० ३४ ३. लोके प्रसिद्ध लोकप्रसिद्धम्, यथैव लोके प्रसिद्धं तथा घटभवनम् आकारादिमात्रमेव च घट
इति लोके प्रसिद्धम् । वही. टीका पृ० ३४
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