________________
द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
अद्वैतवादि जगत् में एक ही मूलतत्त्व को स्वीकारते हैं। सभी अद्वैतवादियों ने मूल तत्त्व एक ही माना है तथापि उसके नामों में भिन्नता है । उसी अद्वैतवाद कां निरास करके द्वैतवाद का स्थापन करना प्रस्तुत अर का उद्देश्य है । पुरुषाद्वैत के निरास द्वारा सांख्यदर्शन ने पुरुष और प्रकृति के द्वैत की स्थापना की है ।
४०
विधि-उभय शब्द का विवेचन हम इस प्रकार कर सकते हैं विधि का विधि एवं नियम अर्थात् विधि का स्वीकार एवं अस्वीकार, इन दोनों दृष्टियों का समन्वय करनेवाला अर । विधि की विधि के रूप में सर्वप्रथम सांख्यों ने प्रकृति का स्थापन किया है । एकरूप प्रकृति नाना कार्यों का सम्पादन करती है यह सांख्यों का सिद्धान्त है, किन्तु ऐसा मानने पर पुरुषाद्वैतवाद पर किए गए सभी आक्षेप सांख्य संमत प्रकृति को सामन रूप से लागू पड़ेंगे । अतः सांख्यों का प्रधान कारणवाद भी खण्डित हो जायेगा । इस प्रसंग में सत्कार्यवाद एवं त्रिगुणों का भी खण्डन किया गया है । इस प्रकार सांख्य मत का विधिविधि-वाद के विरुद्ध में उत्थान करने पर भी दोषयुक्त होने के कारण अस्वीकार करते हुए प्रकृतिवाद के स्थान में ईश्वरवाद का स्थापन किया गया है । प्रकृति कारणवाद का खण्डन सर्वसर्वात्मवादी के द्वारा किया गया है और सांख्य के द्वैतवाद के स्थान पर ईश्वरवादियों ने अन्य द्वैतवाद की स्थापना की है । तदनुसार भाव्य जगत् और उसके अधिष्ठाता भविता ईश्वर दोनों की सत्ता है । इस ईश्वरवाद का समर्थन श्वेताश्वतरोपनिषद एको वशी निष्क्रियाणां बहूनामेकं बीजं बहुधा यः करोति (६.१२) इत्यादि कारिका के द्वारा किया गया है ।
जैन परम्परा में इसका सम्बन्ध प्रज्ञापना सूत्र के "दुविहा पण्णवणा पण्णत्ता जीव पण्णवणा, अजीव पण्णवणा च । एवं किमिदं भंते । लोए पवुच्चइ ! गोयमा ! जीव चेव अजीव चेव" (स्थानांग सूत्र के) उक्त वाक्यों के साथ जोड़ा गया है ।
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ३३४.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org