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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास
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अर्थात् उसके कारण का विधान करना । एक ही कारण से नाना स्वरूप इस जगत् की उत्पत्ति होती है यही इस अर का मन्तव्य है ।
सर्वप्रथम पुरुष को ही सृष्टि का कारण मानकर पुरुषाद्वैतवाद की स्थापना की गई है । इसमें पुरुष ही सर्वज्ञ आत्मा है, कर्म है एवं कारण है ऐसा माना गया है और उसे सिद्ध किया गया है । पुरुष ही सर्वात्मक है इस सिद्धान्त को स्थापित करने के लिए 'पुरुष एवेदं सर्व यद् भूतं यच्च भव्यं इत्यादि शुक्ल यजुर्वेद के मन्त्र का आधार लिया गया है । तत्पश्चात् पुरुषवाद का खण्डन करके नियतिवाद की स्थापना करते हुए कहा है कि नियति से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई है और नियति ही सर्वकार्यों के प्रति एकमात्र कारण है । इस प्रकार नियति-अद्वैतवाद की स्थापना की है । आचार्य मल्लवादी ने इस नियतिवाद का खण्डन कालवाद के द्वारा कराया है। नियति काल के बिना कार्य नहीं कर सकती है अतः काल ही जगत् का कारण है ऐसा बताया गया है । कालाद्वैतवाद का खण्डन स्वभावाद्वैतवाद से कराया है । इस सृष्टि की रचना स्वभावतः ही होती है अतः स्वभाव ही सृष्टि का एकमात्र कारण है ऐसा प्रस्तुत सिद्धान्त का मन्तव्य है । स्वभाववाद का खण्डन भाववाद ने किया है । जगत् के सभी पदार्थों में भवनं भावः इस प्रकार का अद्वैत अनुस्यूत है । इस अर में पुरुषादि वादों के प्रस्तुतीकरण का कारण बताते हुए पं० मालवणियाजी ने बताया है कि अज्ञान विरोधी ज्ञान है और ज्ञान ही चैतन आत्मा है, वही पुरुष है अतएव यहाँ अज्ञानवाद के बाद पुरुषवाद रखा गया है ।
इस पुरुषवाद का जैनदर्शन से समन्वय भगवतीसूत्र के - 'किं भयवं । एके भवं, दुवे भवं, अक्खुए भवं, अव्वए भवं, अवट्ठिए भवं, अणेगभूतभव्वभविए भवं । सोमिला, एके वि अहं दुवेवि अहं....' वाक्य से माना गया है ।
(३) विध्युभय अस् -
द्वितीय विधिविधि अर में अद्वैतवादियों की चर्चा की गई है ।
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० २४५.
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