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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास अनुविद्ध है अर्थात् अज्ञान से युक्त है। किन्तु ऐसा मानने पर ज्ञान से अज्ञान का कोई विशेष अन्तर नहीं हो सकेगा । अतः अज्ञान ही श्रेयष्कर है । अज्ञानवादी का मानना है कि अमुक फल प्राप्त करने के लिए अमुक क्रिया करनी चाहिए । इस प्रकार अज्ञानवादी क्रिया-विधायी शास्त्रों को ही सार्थक मानते हैं । इस मत की स्थापना के रूप में 'को ह्येतद वेद ? किं वा एतेन ज्ञानेन' ? वाक्य उद्धृत किया गया है ।
वेदोक्त 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' आदि क्रियाविधायी विधिवाक्यों को मीमांसक प्रमाणभूत मानते हैं। विधिवादी भी विधिवाद-अज्ञानवाद को ही प्रमाणभूत मानते हैं ।२ जब वस्तुतत्त्व पुरुष के द्वारा जाना ही नहीं जा सकता तब अपौरुषेय शास्त्र का आश्रय तत्त्वज्ञान के लिए नहीं किन्तु क्रिया के लिए ही करना चाहिए । इस प्रकार इस अज्ञानवाद को वैदिक कर्मकाण्डी मीमांसक मत के रूप में फलित किया गया है । मीमांसक सर्वशास्त्र का या वेद का तात्पर्य क्रियोपदेश में मानता है। सारांश यह है कि शास्त्र का प्रयोजन यह बताने का है कि यदि आपकी कामना अमुक अर्थ प्राप्त करने की है तो उसका साधन अमुक क्रिया है । अतएव शास्त्र क्रिया का उपदेश करता है । जिसके अनुष्ठान से व्यक्ति की फलेच्छा पूर्ण हो सकती है। यह मीमांसक-मत विधिवाद के नाम से प्रसिद्ध भी है अतएव आचार्य ने द्रव्यार्थिक नय के एक भेद व्यवहार नय के उपभेद रूप से विधिभंगरूप प्रथम अर में मीमांसक के इस मत को स्थान दिया है। प्रस्तुत विधिवाद आगम से-जैनदर्शन से संबद्ध है यह दिखाने के लिए आचार्य मल्लवादी ने भगवतीसूत्र का एक वाक्य उद्धत किया है जिसमें गौतम के एक प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् महावीर ने कहा है कि आत्मा कथञ्चित् ज्ञानवान् है और कथञ्चित् अज्ञानी है । इस प्रकार प्रथम विधि अर का विवेचन किया गया है।
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ३५. २. वही, पृ० ११३. ३. निबन्धनं चास्य :-आता भंते णाणे, अण्णाणे ? गोतमा णाणे णियमा आता, आता पुण
सिया णाणे सिया अण्णाणे । भगवतीसूत्र १२।३।४६७ उद्धृत द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ११५.
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