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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास
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सत् के कर्तृत्व लक्षण को स्वीकार करते हैं या सत् की सत्ता को स्वीकार करते हैं, वे विधिवादी हैं । साथ ही जो व्यवहार, प्रथा या रिवाज, लोकाचार को मान्य करता है वह भी विधिवादी है । ग्रन्थ में यह भी कहा गया है कि विधिवाद का अनुसरण करनेवाले द्रव्यार्थिक नय को माननेवाले हैं । १
मूल ग्रन्थ में एवं टीका में नियम के अर्थ के सम्बन्ध में अधिक स्पष्टता प्राप्त नहीं होती है । नियम शब्द के पर्यायवाची शब्दों वाला अंश मूलग्रन्थ में त्रुटित है फिर भी टीका के आधार पर यह कह सकते हैं कि जो स्थिति को नहीं मानते हैं या तत्त्व के केवल अनित्य पक्ष को ही स्वीकार करते हैं वे नियमवादी हैं । २ नियमवाद पर्यायास्तिक नय का अनुसरण करता है । ३ उसके आधार पर डॉ० फ्राउवाल्नेर ने विधिवाद शब्द का अर्थ विधेयात्मक दर्शन और नियमवाद का अर्थ निषेधात्मक दर्शन किया है । उपरोक्त चर्चा के आधार पर हम यह भी कह सकते हैं कि विधि शब्द का अर्थ है सत् के नित्यत्व एवं अस्तित्व को स्वीकार करनेवाला पक्ष और निषेध शब्द का अर्थ है सत् के अनित्यत्व या अनस्तित्व को स्वीकार करनेवाला पक्ष । विधि और नियम शब्दों के इन अर्थों का अनुसरण करके ग्रन्थकार ने उनके संयोगों के आधार पर ही द्वादशभेद या अरों का सर्जन किया है ।
ग्रन्थकार ने विधि एवं नियम इन दो शब्दों के द्वारा समस्त भारतीय दर्शनों को अभिहित किया है। वैसे भी देखा जाय तो भारतीय दर्शन मुख्यतया दो विभाग में विभाजित हो जाते हैं। कुछ तो वास्तववादी दर्शन हैं और कुछ अवास्तववादी दर्शन हैं । वास्तववाद का अर्थ है कि जो बाह्य जगत् के अनुभूत तथ्यों को वास्तविक मानते हैं अर्थात् जिनके मतानुसार व्यावहारिक और पारमार्थिक सत्य में कोई भेद नहीं, सत्य सब एक ही कोटि का है चाहे मात्रा की दृष्टि से न्यूनाधिक हो अथवा जिनके मतानुसार प्रमाण मात्र में भासित
१. द्रव्यार्थो विधिः । द्वा० न० टी० पृ० १०.
२. आधिक्येन यमनं नियमः, परस्परप्रतिविविक्तभवनादि लक्षणः प्रतिक्षणनियतोऽवस्थाविशेषो युगपद्भावी अयुगपद्भावी वा वादिः ।
द्वा० न० टी०, पृ० १०.
३. पर्यायार्थस्तु नियमः । द्वा० न० टी०, पृ० १०.
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