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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन इस प्रकार हम इस निश्चय पर पहुँचते हैं कि आ० मल्लवादी क्षमाश्रमण विक्रम की पाँचवीं शताब्दी के लगभग हुए हैं । यदि हम मुख्तार जी के मत को मान्य करके वाक्यपदीय को परवर्ती मानते हैं तो दिङ्नाग को भी परवर्ती मानना होगा किन्तु दिङ्नाग धर्मकीर्ति आदि के पूर्ववर्ती ही हैं । अत: मल्लवादी का समय विक्रम की पाँचवीं शताब्दी से नीचे ले जाना सम्भव नहीं है। पुनः यदि हम आ० मल्लवादी के ग्रन्थ की विषयवस्तु की ओर दृष्टिपात करते हैं तो उसमें कोई भी उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है जो परवर्ती काल का हो । जहाँ तक भर्तृहरि के वाक्यपदीय का प्रश्न है उसका उल्लेख अनेक प्राचीन जैन एवं बौद्ध आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में किया है और वे सभी विक्रम की पाँचवीं-छठी शती के पूर्व के ही हैं । यदि हम दार्शनिक सिद्धान्त की दृष्टि से भी इस ग्रन्थ का अभ्यास करें तो भी हम इसे बहुत परवर्ती सिद्ध नहीं कर सकते हैं । क्योंकि इसमें जो भी दार्शनिक मत उल्लेखित हैं वे सभी प्राचीन हैं। अतः आ० मल्लवादी का समय विक्रम की पाँचवीं शताब्दी के आसपास मानना ही अधिक उपयुक्त है ।
आचार्य मल्लवादी की कृतियाँ
वादिमुख्य आचार्य मल्लवादी एक समर्थ दार्शनिक थे । उन्होंने द्वादशार-नयचक्र नामक प्रौढ़ दार्शनिक ग्रन्थ की रचना की थी । प्रस्तुत ग्रन्थ का अवलोकन-अध्ययन करने से आचार्य मल्लवादी की विद्वत्ता का परिचय हो ही जाता है और साथ-साथ यह जिज्ञासा भी होती है कि क्या आचार्य मल्लवादी ने अन्य कोई ग्रन्थों की रचना की थी या नहीं ? इस जिज्ञासा की पूर्ति के लिए हमें प्राचीन साहित्य का पर्यवेक्षण करना आवश्यक है । प्रबन्धग्रन्थ एवं दार्शनिक ग्रन्थों के अवलोकन से हम यह तो निश्चित् ही कह सकते हैं कि आचार्य मल्लवादी द्वारा कम से कम तीन ग्रन्थों की रचना तो हुई ही थी । दुर्भाग्य वश हमें उनके कोई भी ग्रन्थ मूल रूप में उपलब्ध नहीं हैं । प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का शोधग्रन्थ द्वादशार-नयचक्र भी अपने मूल स्वरूप में कई शताब्दियों पूर्व ही नष्ट हो चुका था । पू० जम्बूविजयजी ने आचार्य सिंहसूरि की टीका के आधार पर द्वादशारनयचक्र को पुन: संपादित किया है । प्रबन्धात्मक ऐतिहासिक ग्रन्थों एवं दार्शनिक ग्रन्थों के आधार पर आचार्य
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