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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
मतों का नयवाद में स्थापन करने का प्रयास किया ही था और आगम में अनेकान्तवाद के अनेक बीज पड़े हुए थे, उन सबका तथा अपने काल तक के समस्त दार्शनिक परम्पराओं का गहन अभ्यास करके आचार्य मल्लवादी ने अनेकान्तवाद की स्थापना अपने ही ढंग से की है जो जैनदर्शन में अन्यत्र उपलब्ध नहीं होती है। . आचार्य मल्लवादी ने समस्त भारतीय दर्शनों को एक चक्र की कल्पना करके उसमें समाविष्ट कर दिया । तदनुसार एक के बाद एक सिद्धान्त का वर्णन आता जाता है । पूर्व-पूर्व सिद्धान्तों का खण्डन उत्तर-उत्तर सिद्धान्त करता जाता है । अतः पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर पक्ष-सिद्धान्त प्रबल लगता है तथापि अन्तिम वाद के बाद प्रथम वाद आ ही जाता है और वह अन्तिम वाद का खण्डन कर देता है इस प्रकार चक्र की तरह यह परम्परा चालू ही रहती है। इसमें सभी सबल और सभी दुर्बल हैं या एक अपेक्षा से एक वाद सबल है और दूसरा निर्बल है, वहीं दूसरी अपेक्षा से वही प्रथम वाद दुर्बल और दूसरा वाद सबल सिद्ध होता है । इस प्रकार स्याद्वाद और अनेकान्तवाद का स्थापन किया गया है ।
आचार्य मल्लवादी ने यह भी कहा है कि यह चक्र ही जैनदर्शन है । जैसे चक्र का कोई एक अर कुछ कर नहीं सकता वैसे ही किसी एक दृष्टि से तत्त्व का विचार करने पर वस्तुतत्त्व का यथार्थ बोध नहीं होता है । वस्तु तत्त्व का यथार्थ बोध करने के लिए तो समस्त दृष्टियों से विचार करना चाहिए और वही जैनदर्शन है । इस प्रकार आचार्य ने स्याद्वाद का स्थापन किया है ।
इस ग्रन्थ के ऊपर आचार्य सिंहसूरि ने सातवीं सदी के पूर्वार्ध में १८००० श्लोक प्रमाण टीका लिखी है। इसमें भी सभी वादों का विवेचन किया गया है।
इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का बाद के कोई जैनाचार्यों ने उपयोग नहीं किया, यह एक आश्चर्य का विषय है । हमारा विवेच्य ग्रन्थ द्वादशार-नयचक्र है, अतः तत्पश्चात् दार्शनिक विकास के विषय में यहाँ विवेचन नहीं किया गया हैं ।
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