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ग्रन्थकार की जीवनी |
यथार्थ-धर्मका प्राप्त होना बहुत मुशकिल हो गया है । ऐसे समयचे मेरे जैसे अज्ञामीको शद्ध धर्म प्राप्त होना यह उनकी कृपा का ही फल था। श्रीमहाराजके उपकार को हृदयमें स्मरण करके यथार्थ बात थी सो
संक्षेप में लिखी है।
यह तो हुई उनकी निजकी लिखी हुई संक्षिप्त जीवनी और कई एक घटनाए'। इसके सिवाय वही ग्रन्थ (स्याद्वादानुभव रत्नाकर) में जिज्ञासुओं ने अपनी शंकाओं के रूपमें, और उनके समाधानके रूपमें उन्होंने प्रसङ्गोपात्त कई बाते कही हैं जो कि उनकी लघुता, निरभिमानता, सरलता और स्पष्ट. वादिता आदि गुणों को प्रकट करनेके साथ साथ उनके जीवनकी पवित्रता पर अच्छा प्रकाश डालती है। इससे उपयुक्त जानकर उन अंशों को उक्त ग्रन्थ से ज्यों का त्यों यहां पर उद्धृत करता हूं;
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“अब मैं तुम्हारे सन्देह को दूर करनेके वास्ते कहता हूं कि मैं की सालमें (विक्रम सम्बत् १९३५ में ) पावापुरीको छोड़कर इस देशमें आया हूं। और जो ३५ की सालसे पहिले पावापुरी आदिक मगध देशमें ऊपर लिखे चक्रोंका किञ्चित् अनुभव जो मैंने किया था उस अनुभवसे मेरे चित्तकी शान्ति और मेरा गुण मालुम होता था । सो अब वर्तमान कालमें जैसे मोहरमेंसे घटते २ एक पैसा मात्र रह जाता है, उससे भी न्यून मुझे मेरा गुण मालूम होता है। उसका कारण यह है कि जब मैं उस देशसे इस देशकी शोभा सुनकर यहां आया तब मुझे शास्त्र वांचने पढ़नेका इतना बोध न था, परन्तु किञ्चित् ध्यानादि गुणके होनेसे मैं जो शास्त्रादि-श्रवण करता था उनका रहस्य सुनते ही किञ्चित् प्राप्त हो जाता था । और फिर मैं जिनके पास आया था उनकी प्रकृति न मिलनेसे मुझ पर जो २ उपद्रव हुए हैं सो या तो ज्ञानी जानता है या मेरी आत्मा जानती है। और जो उन भेष-धारियोंके दृष्टिरागी श्रावकोंने मेरे चरित्र भ्रष्ट करनेके वास्ते उपद्रव किये हैं सो ज्ञानी जानता है, मैं लिखा नहीं सकता। और मैंने भी अपने चित्तमें विचारा कि श्री संघ मोटा है और जो मैंने अपने भावसे निष्कपटतया इस किया है तो जिन धर्म मेरी रुचि मुवाफिक मुझको.
कामको
फल देगा। इन
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