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संग शुद्ध होय चित्त, जाती है। चिदानन्द
क
की
प्रन्थकार की जीवनी। ऐसी प्रभू आप ही बखानी है। प्रायश्चित करे गुरू, संग शद्धी चारित्र धरे श्रद्धा और ज्ञान, यही स्याद्रादकी निशानी है। सार जिन-आगमको रहस्य यही, आज्ञा विपरीत वोही, नर निशानी है॥३॥" - यहां तक तो स्वयं महाराज श्री के लिखाये मुजिब जीवन की संवत् १९५१ को साल में स्याद्वादानुभव रत्नाकर ग्रन्थमें छपा, उमर लिया गया है। परन्तु इसके पश्चात् जो विषय मेरे अनभने आये हैं उन सबका महाराज साहबको आज्ञा नहीं होने पर लिखना योग्य नहीं है। परन्तु मेरा समागम, सम्बत् १६५४ को सालमें जब महाराज साहबका चतुर्मास, परगने जाबद्, जिला नीमच, रीयासत गवालियर में था, तब हुआ था, उस समयसे काल धमको प्राप्त हुए तकका किश्चित् वृत्तान्त लिखता हूं:- सम्बत् १९५५ का चातुर्मासं कसवा जीरनमें था, वहां करीव १२९ घर जैनियों के हैं जिसमें ११७ घर तो ढूंढ़ियोंके और ८ घर मन्दिर आम्नायके थे। सो महाराज साहेबके उपदेशसे ११० घर वालोंने मन्दिर को श्रद्धा की और वहाँ पर एक प्राचीन जैन मन्दिर बनाकर उसमें सम्बत् १९५५ का माघ शुक्ल १३ को प्रतिष्ठा करके प्रतिमा स्थापन की। उस बखत कई चमत्कार देखनेमें आये थे। तथापि सबसे महत्वकी बात यह हुई कि प्रतिष्ठा के दिन एक हजार अन्दाज मनुष्योंके आनेकी धारणाथी। इसलिये सक्कर मन १० नीमच से,जो कि वहांसे पांच कोस है, मंगाई गई थी, क्योंकि जीरनमें विशेष वस्तु नहीं मिलती, परन्तु सुद १३ को करीव ४५०० स्त्री पुरुष प्रतिष्ठा पर नजदिकके गावों से आगये। इससे जीरणके संघको जीमनके वास्ते सामग्री तैयार कराना असंभव होगया । तब वहांके श्रावकोंने महाराज साहबसे अर्ज करी कि अब तो सामान आ नहीं सकता, इसलिये संघको लज्जा रखनी आपर हाथ है । इस पर प्रथम तो महाराज साफ इनकार कर गये, तथापि त्रा वकोंके विशेष आग्रह करनेसे फरमाया किकुछ फिकर मत कर कह कर मेरे को वासक्षेप देकर फरमाया कि सामग्रीके स्थानम
छ फिकर मत करो। ऐसा रामग्रीके स्थानमें विधि
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