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अन्धकार की जीवनी। ने ध्यान किया था, उसीमें मैं भी ध्यान करने लगा। दश दिन मुझको कुछ भी मालुम न हुआ, और ग्यारहवें दिन जो आनन्द मा हुआ सो मैं वर्णन नही कर सकता। मेरे चित्तकी चञ्चलता ऐसे मिल गई जैसे नदीका चढ़ा हुआ पूर एक सङ्ग उतर जाय। उसके बाद ध्यान में बिन होने लगे, सो कुछ दिनके वाद ध्यान करना तो कम किया
और "गुरु अवलम्ब बिचारत आतम-अनुभव रस छाया जी, पावास निर्वाण थानमें नाम चिदानन्द पाया जी ॥”
.इस नाम को पायकर चौमासेके बाद वहांसे बिहार कर घमता हुआ काशी ( बनारस ) में आया और उस जगह की भी यात्रा को तथा उसी जगह रहता था। वहां कुछ दिन पीछे केसरीचन्द गाड़िया जोधपुरवाला मुझे मिला। उसने मुझसे पूछा कि आप किसके शिष्य हो,
और आप किधरसे थाये? मैंने कहा कि मैं श्री शिवजीरामजीका शिष्य हूं' तब उसने कहा कि महाराज, मैं तो श्री शिवजी रामजीके सब शिष्यों से वाकिफ हूं, आप उनके शिष्य कबसे हुए ? तब मैंने उत्तर दिया कि भाई, मैं उनकी सूरतसे तो वाकिफ नहीं, परन्तु नामसे गुरू मानता हूं, तब वह जबरदस्तीसे मुझकोमारवाड़ में लेगया। फिर उसकी आज्ञा लेकर मैं जयपुर ऊतर गया। वहाँ मुझे श्री सुखसागरजी मिले। आठ दिन वहां रहा, फिर अजमेर होकर नयाशहर पहुंचा, यहां श्री शिवजी रामजी महाराजके दर्शन किये। उस समय मोहनलालजी भी वहां थे। फिर श्री शिवजी रामजीने अजमेर आयकर मुझे फतेमल भड़गतिये की कोठीमें सम्बत् १९३५ के आषाढ़ सुदी २ मङ्गलबारके दिन दीक्षा दी। उस समय जब श्री शिवजी रामजी महाराजने सर्व व्रत उच्चराते समय मुझसे पूछा कि मैं तेरेको सर्व व्रत सामायिक जावजीवका कराता हूं, उस समय बहुत शहरोंके श्रावक श्राविकादि चतुर्विध संघमौजुद था, जब मैंने कहा कि महाराज साहब, मेरेको इन्द्रियोंके विषय भोगनेका जाव जी त्याग है, परन्तु प्रवृत्ति मार्ग अथवा कारण पड़े तो गृहस्थियोंसे कह कर्म कराय लेनेका आगार है। इसका वृत्तान्त चोथे प्रश्नके लिखूगा। फिर मुझको दिक्षा देकर उन्होंने नयासहरमें चोगासा
तरमें
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