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प्रथम अध्याय
सन्धान-महाकाव्य : इतिहास एवं परम्परा
धनञ्जय कृत द्विसन्धान-महाकाव्य भारतीय महाकाव्य परम्परा में शास्त्रीय महाकाव्य शैली से अनुप्राणित है । महाकाव्य की विश्वजनीन परम्परा में मुख्यत: दो प्रकार से महाकाव्यों का स्तर निर्धारित किया जाता है। प्रथम स्तर में विकसनशील शैली के महाकाव्य आते हैं, तो दूसरे स्तर में अलंकृत शैली के महाकाव्य सम्मिलित हैं । परन्तु, भारतीय महाकाव्य परम्परा का इतिहास विश्व में सर्वाधिक उत्कृष्ट एवं समृद्ध रहा है । रामायण एवं महाभारत के अतिरिक्त जैन परम्परा के पुराण ग्रन्थ जहाँ भारतीय महाकाव्य की विकसनशील शैली को समाजशास्त्रीय एवं संस्कृतिमूलक आयाम देते हैं, वहाँ दूसरी ओर अलंकृत शैली के अन्तर्गत आने वाले रघुवंश, किरातार्जुनीय के समकक्ष द्विसन्धान, सप्तसन्धान आदि सन्धानात्मक शैली के महाकाव्यों का भी सृजन हुआ, जो महाकाव्य परम्परा के द्वितीय स्तर वाले अलंकृत शैली के महाकाव्यों को विकास की चरम सीमा तक पहुँचाते प्रतीत होते हैं।
महाकाव्य सृजन की परम्परा व इतिहासपरक उपर्युक्त प्रवृत्तियों में समाजशास्त्रीय तथा सामाजिक मूल्यों का अभूतपूर्व सम्मिश्रण होता आया है । यही कारण है कि किसी युग में महाकाव्य का स्वरूप सामाजिक सन्दर्भ में उभर कर आया तो मध्यकालीन संस्कृत काव्य परम्परा के सामन्तवादी युग में कृत्रिम अथवा अलंकार प्रधान काव्य को युग चेतना का विशेष प्रश्रय प्राप्त हुआ। फलत: सातवीं शताब्दी के उपरान्त शब्दक्रीड़ा तथा विदग्ध आलंकारिक प्रवृत्तियों को काव्य में विशेष स्थान मिला। इन्हीं परिवर्तित युगीन काव्य मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में द्विसन्धान आदि श्लेष-काव्यों का सृजन हुआ, जो मूलत: महाकाव्य की परम्परा का अनुसरण करते हुए अपने युग की काव्य प्रवृत्तियों को आलंकारिक चमत्कृति प्रदान करते