________________ 3. आराधनासार - यह ग्रंथ 115 प्राकृत गाथा प्रमाण है। मंगलाचरण का अर्थ संस्कत टीकाकार रत्नकीर्तिदेव ने 12 प्रकार से किया है। मंगलाचरणोपरान्त आराधना का लक्षण बताते हए इसके मुख्य दो भेदों का उल्लेख किया है। वे भेद हैं निश्चयाराधना और व्यहाराराधना। आगे व्यवहाराधना का लक्षण एवं भेदों का कथन है तत्पश्चात् निश्चयाराधना का स्वरूप कहा है। व्यवहार आराधना को परम्परा से मोक्ष का और निश्चयाराधना को साक्षात् कारण माना है। आराधक एवं विराधक के लक्षणों का भी उल्लेख है। आराधक को सल्लेखना धारण करने के लिए उसे उसके योग्य बनने का उपदेश है, फिर परिग्रह त्याग का उपदेश देते हुए परीषह और उपसर्गों के भेद बताकर उदाहरण भी उद्धृत किये हैं। अन्तिम गाथाओं में उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से आराधनाओं का फल बतलाकर अपनी गुरुपरम्परा एवं लघुता प्रकट की है। 4. तत्त्वसार - इस ग्रंथ में 74 गाथायें हैं। तत्त्व के मूलतः दो भेद हैं प्रथम स्वगत तत्त्व द्वितीय परगत तत्त्व। स्वगत तत्त्व निजात्मा है और परगत तत्त्व परमेष्ठी है। स्वगत तत्त्व के भी दो भेद हैं-सविकल्पक और निर्विकल्पक। आस्रवसहित को सविकल्पक और आम्रवरहित को निर्विकल्पक कहते हैं। इन्द्रिय विषयसुख के समाप्त होने पर मन की चंचलता जब अवरुद्ध हो जाती है तब आत्मा अपने स्वरूप में निर्विकल्प हो जाता है। इस प्रकरण में श्रमण और योगी की विशेषता बतलाते हुए लिखा है कि - बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित हो, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है। अन्त में लिखा है कि जो निजात्मा की अनुभूति में तत्पर होता है, उसे सिद्धों के समान अपूर्व, अचिन्त्य सुख मिलता है। 5. लघुनयचक्र - इस ग्रंथ में 87 गाथायें हैं। नय का स्वरूप, उपयोगिता एवं उसके भेद-प्रभेदों का वर्णन किया है। नय के बिना वस्तुस्वरूप की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती तथा नय द्वारा ही स्यादवाद का ज्ञान होता है। नय से जिनवचनों का बोध होता है। मूलनय दो हैं प्रथम द्रव्यार्थिक और द्वितीय पर्यायार्थिक। नय के सामान्यतया नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये सात भेद हैं। अन्य प्रभेद निम्न प्रकार हैं-द्रव्यार्थिक-10, पर्यायार्थिक-6, नैगम-3, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र के 2-2 और शेष नयों के एक-एक भेद होते हैं। ___15 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org