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स्वकथ्य
विक्रम संवत् दो हजार सोलह की बात है कि मुनि श्री राजकरणजी उदयपुर डिविजन के लाम्बोडी ग्राम में विराज रहे थे। वहां पर पडित दीनानाथ 'दिनेश' की लिखी हुई गीता का पद्यानुवाद देखने को मिला। उस पुस्तक का आद्योपान्त पारायण करने पर एक बात सूझी कि क्या ही अच्छा हो यदि उत्तराध्ययन सूत्र (जिसे जैन गीता कहा जा सकता है) का इसी ढग से हिन्दी मे पद्यानुवाद तैयार होकर जनता के सामने आए। इससे और नही तो कम से कम साधारण जैन श्रावक समाज को बहुत बडा स्वाध्याय का लाभ मिल सकता है। मैंने मुनि श्री राजकरणजी से निवेदन किया कि आप उत्तराध्ययन सूत्र का हिन्दी मे पद्यानुवाद तैयार करें। उन्होने कहा, तुम्ही तैयार करो । कुछ दिनो तक मैं सोचता रहा। फिर दिमाग में एक बात आई कि उत्तराध्ययन सूत्र तो बहुत बडा है। पहले दशवकालिक सूत्र का पद्यानुवाद तैयार किया जाए तो छोटा होने के कारण सुगमता रहेगी।
जेठ के महीने में 'खरणोटा' ग्राम में मैने दशवकालिक सूत्र के पहले अध्ययन का पद्यानुवाद लिखकर मुनि जी को दिखाया। उन्होंने उसकी सराहना की। फिर तो आव देखा न ताव रात-दिन इसमें ही जुटा रहा। फलस्वरूप लगभग एक महीने में पद्यानुवाद तैयार हो गया। , मुनि श्री राजकरणजी से मैंने इसकी पाण्डुलिपि बनवाई। फिर जब परम श्रद्धेय आचार्य प्रवर के दर्शन किये तव यह कृति उन्हे मेंट की गई। किन्तु अतीव व्यस्तता के कारण आचार्य प्रवर, उस वक्त उसे देख नहीं पाए। मैंने अपने साथी सन्तो को तथा-बडे सन्तो को पद्यानुवाद दिखाया। उन्होने मुझे बहुत थपथपाया।
विक्रम संवत् दो हजार अठारह का चातुर्मास मुनि श्री-राजकरणजी का बीकानेर और साहित्य-परामर्शक मुनि श्री वुद्धमलजी का गंगाशहरे था। इन दोनो सिंघाडो का मिलन नोखामण्डी में हुआ। हम शेप काल में भी महीनो तक साथ रहे । मैंने मुनि श्री बुद्धमलजी से निवेदन किया कि 'दशवकालिक' का पद्यानुवाद मैंने जो तैयार किया है, आप उसका सशोधन कर दें। आपका बहुतबहुत आभार मानूंगा। मेरे इस नम्र निवेदन पर उन्होने कृपा करके इसे स्वीकार किया और प्रति दिन एक-डेढ घण्टा उनके समीप बैठकर मैं इसका सशोधन कराता गया। इससे मुझे बहुत बडा लाभ हुआ।
सन् १९६१ के दिसम्बर १० से 'जन भारती' साप्ताहिक मे इसके क्रमश. सात अध्ययन प्रकाशित हुए । वाद में वि०स० दो हजार उन्नीस के प्रारम्भ में ही मुनि श्री पूनमचन्दजी (श्रीडूगरगढ) ने मेरे से आग्रह किया कि उत्तराध्ययन सूत्र के उन्नीसवें अध्ययन का पद्यानुवाद मुझे बनाकर दो, क्योकि वह मुझे बहुत