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नित्य क्षणिक वादियों के संयम, नियम, दान, करुणा तथा व्रत भावना सर्वथा घटित नहीं होती है (भाव सं. १३६)
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क्षणिकवाद में बन्ध और मोक्ष घटित नहीं होता है । ( भाव सं. १३७)
जैन दृष्टि से जीव नित्य है, पर्यायें अनित्य हैं । अनित्य पर्यायों का प्राश्रय लेने से अर्हन्तदेव ने जीव की कथंचित् अनित्यता मानी है । प्रत्येक वस्तु द्रव्यं की अपेक्षा नित्य और पर्याय की अपेक्षा अनित्य है ।
चार्वाक कहते हैं कि भूतयोगात्मिका शक्ति चैतन्य कही जाती है, जिस प्रकार गीले आटे और गुड़ादि से मदशक्ति उत्पन्न होती है। इस पर जैनों का कहना है कि यदि काय का परिणमन पृथिव्यादिकों के मिलने से ही हो जाता है तो सदा क्यों नहीं रहता है ? कभी कभी क्यों होता है ? यदि पृथिव्यादिकों के अतिरिक्त और कोई भी कारण है तो वह आत्मा ही है |
यदि चैतन्य उत्पन्न होने का आत्मरूप एक विशेष कारण न होता हो तो किसी स्थान में ज्ञान होता है और किसी में नहीं, ऐसा नियम नहीं हो सकेगा ।
भूतों से आत्मा की उत्पत्ति हो तो मैं गौरवर्ण हूं, इत्यादि प्रतीति अन्तरङ्ग की तरफ ही क्यों होती है ? बाहर की तरफ ही होनी चाहिए ।
उपयोग यदि भूतों का ही धर्म अथवा कार्य हो तो प्रत्येक को उसका अनुभव होना चाहिए तथा विजातीय पदार्थ से भी विजातीय की उत्पत्ति होनी चाहिए, परन्तु ऐसा होता नहीं । (स्याद्वाद मंजरी )
पूर्वजन्म का स्मरण होने से, गमनागमन का निश्चय होने से, पृथक् पृथक् सादृश्य से जीव है, यह निश्चय होता है ( भाव सं. १५८ )
तापस लोग कहते हैं कि समस्त जीव शिवात्मक हैं, अतः मोक्षसाधक को उनकी बिनय करना चाहिए। इसका उत्तर यह है कि जो प्रधान (अङ्गी) शिवस्वरूप है तो वन्दना करने वाला शिवस्वरूप क्यों नहीं होगा ? जब तुम्हारे और शिव में समानता है तो कौन किसके द्वारा वन्दना के योग्य होगा ( भा. सं. १६० - ६१ )