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७१ इत्येतद्वर्तनं सर्व मिश्रभावसमाश्रितम् ।
येषां ते मिश्रभावाढ्या भ्रमन्ति भवपद्धतौ ॥३१३॥
इस प्रकार मिश्र भाव से समाश्रित जिनका व्यवहार है, मिश्र भाव से व्याप्त वे संसार मार्ग में भ्रमण करते हैं ।
सम्यग्मिथ्यात्वयोर्मध्ये यदे कतरभावना।
तया स्यात्तस्य तन्नाम मिश्रं स्थानं ततो न हि ॥३१४॥ सम्यक्तव और मिथ्यात्व के मध्य में कोई एक भावना हो तो उसी के अनुसार उसका नाम होता है । अतः मिश्र स्थान नहीं है।
न ह्यवं सुप्रसिद्धोऽस्ति भावान्तर समुद्भवः ।
सर्वशास्त्रेषु सर्वत्र बालगोपालसम्मतः ॥३१५॥ इस प्रकार दूसरे भाव की उत्पत्ति समस्त शास्त्रों में सब जगह सुप्रसिद्ध नहीं है, यह बात बाल गोपाल सम्मत है ।
जात्यन्तरसमुदभूतिर्वडवारवरयोर्यथा ।
गुडदंध्नोः समायोगे रसान्तरं यथा भवेत् ॥३१६॥ जिस प्रकार घोड़ी और गधे के संयोग से अन्य जाति की सन्तान उत्पन्न होती है अथवा जिस प्रकार गुड़ और दही के मेल से भिन्न रस की उत्पत्ति होती है।
तथा धर्मद्वये श्रद्धा जायते समबुद्धितः ।
मिश्रोऽसौ भण्यते तस्माद्भावो जात्यन्तरात्मकः ॥३१७॥
उसी प्रकार समबुद्धि होने से दोनों धर्मों में श्रद्धा उत्पन्न होती है, अतः यह जात्यन्तर रूप मिश्रभाव कहा जाता है।