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यदि पात्र नहीं मिलता है तो वह इस प्रकार निन्दा करता है कि पात्रदान के बिना मेरा यह दिन व्यर्थ गया ।
इत्येवं पात्रदानं यो विदधाति गृहाश्रमी।
देवेन्द्राणां नरेन्द्राणां पदं संप्राप्य सिद्धयति ॥५३०॥ इस प्रकार जो गृहाश्रमी पात्रदान करता है, वह देवेन्द्र और नरेन्द्र पद प्राप्त कर सिद्धि को प्राप्त होता है।
अणुव्रतानि पंचव सप्तशीलगुणैः सह।
प्रपालयति निःशल्यः भवेद्वतिको गृही ॥५३१॥
सात शीलगुणों के साथ जो निःशल्य होकर पंच अणुव्रत पालन करता है, वह गृही व्रती होता है ।
व्रत प्रतिमा ।
चतुस्त्रयावर्तसंयुक्तश्चतुर्नमस्क्रिया सह । द्विनिषद्यो यथाजातो मनोवाक्कायशुद्धिमान् ॥५३२॥ चैत्यभक्त्यादिभिः स्तूयाज्जिनं सन्ध्या त्रयेऽपि च ।
कालातिक्रमणं-मुक्त्वा स स्यात्सामायिकवती ॥५३३॥
चार पावर्त और चार नमस्कार सहित बैठकर मन, वचन और काय की शुद्धिवाला जो तीनों सन्ध्याओं (प्रातः, मध्याह्र और सायंकाल) में चैत्य भक्ति आदि पूर्वक काल का अतिक्रमण किए बिना जिन स्तुति करता है, वह सामायिक व्रती होता है। १ सन्ध्यात्रयेष्वपि. च.।