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अनन्तर क्षीण मोहस्वरूप, वीतराग, महाद्य ति, पहले के समान भाव से संयुक्त होकर द्वितीय ध्यान का प्राश्रय लेता है ।
अपृथक्त्वमवीचारं सवितर्कगुणान्वितम् ।
संध्यायत्येकयोगेन शुक्लध्यानद्वितीयकम् ॥७१७॥ एक योग से सवितर्क गुण से युक्त अपृथक्त्व अवीचार नामक दूसरे शुक्लध्यान को भली-भाँति ध्याता है ।
तद्यथा
यद्रव्यगुणपर्यायपरावर्त विवजितम ।
चिन्तनं तद्वीचारं स्मृतं सद्धयानकोविदः ॥७१८॥
जो द्रव्य, गुण और पर्याय के परिवर्तन से रहित चिन्तन है, उसे सध्यान के ज्ञाताओं ने अवीचार माना है।
निजशुद्धात्मनिष्ठत्वाद् भावश्रुतावलम्बनात् ।
चिन्तनं क्रियते यत्र सवितर्कस्तदुच्यते ॥७१६॥ निज शुद्धात्मा में निष्ठता होने से भावश्रुत का अवलम्बन करने के कारण जहाँ चिन्तन किया जाता है, वह सवितर्क कहलाता है।
निजात्मद्रव्यमेकं वा पर्यायमथवा गुणम् ।
निश्चलं चिन्त्यते यत्र तदेकत्वं विदुर्बुधाः ॥७२०॥
एक निजात्म द्रव्य को पर्याय को अथवा गुण को जहां निश्चल होकर चिन्तन किया जाता है, उसे विद्वानों ने एकत्व कहा है। १ श्लोकोऽयं ७१८ श्लोकात्पूर्व ख-पुस्तके ।