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ज्ञातारोऽखिलतत्वानां दृष्टारचकहेलया।
गुणपर्याययुक्तानां त्रैलोक्योदरवर्तिनाम् ॥७७३॥ त्रैलोक्य के मध्यवर्ती गुणपर्याय से युक्त समस्त तत्त्वों के वे एक ही समय में ज्ञाता दृष्टा होते हैं।
विशुद्धा निचला नित्याः सम्यक्त्वाद्यष्टभिणः ।
लोकमूनि विराजन्ते सिद्धास्तेभ्यो नमोनमः ॥७७४॥
वे विशुद्ध हैं, निश्चल हैं, नित्य हैं और सम्यक्त्वादि पाठ गुणों से युक्त होकर लोक के अग्रभाग पर सुशोभित होते हैं, उन सिद्धों को नमस्कार हो ।
चक्रिणामहमिन्द्राणां त्रकाल्यं यत्सुखं परम् ।
तदनन्तगुणं तेषां सिद्धानां समतात्मकम् ॥७७५॥
चक्रवर्ती और अहमिन्द्रों के तीनों कालों में जो उत्कृष्ट सुख हैं, उसका अनन्तगुणा उन समतात्मक सिद्धों के सुख हैं।
यद्धय यं यच्च कर्तव्यं यच्च साध्यं सुदुर्लभम् । चिदानन्दमयज्योतिर्जातास्ते तत्पदं स्वयम् ॥७७६॥
जो ध्येय है, जो कर्त्तव्य है और जो सुदुर्लभ साध्य है ऐसे चिदानन्द मय ज्योति स्वरूप पद स्वयं उनके उत्पन्न हुअा है।
किमत्र बहुनोक्तेन दुःसाध्यं ध्यानसाधनात् ।
नास्ति जगत्त्रये तद्धि तस्माद्धयानं प्रशस्यते ॥७७७॥
अधिक कहने से क्या ? ध्यान रूप साधन से तीनों लोकों में कुछ भी दुःसाध्य नहीं है । अतः ध्यान श्रेष्ठ है ।