________________
१५६ इत्येकत्वमवीचारं सवितर्कमुदाहृतम् ।
तस्मिन् समरसीभावं धत्ते स्वात्मानुभूतितः ॥७२१॥ इस प्रकार एकत्व अवीचार सवितर्क के विषय में कहा है। उसमें स्वात्मानुभूति से समरसीभाव धारण करता है।
इत्येतद्धयानयोगेन प्रोष्यत्कर्मेन्धनोत्करम् ।
निद्रा प्रचलयो शं करोत्युपान्तिमक्षणे ॥७२२॥ इस प्रकार ध्यानयोग से कर्म रूपी ईन्धन के समूह को जलाकर अन्तिम क्षण के पूर्व निद्रा और प्रचला का नाश करता है।
अन्त्ये दृष्टिचतुष्कं च दशकं ज्ञानविघ्नयोः। .
एवं षोडसकर्माणि क्षयं गच्छत्यशेषतः ॥७२३॥ अन्त में चार दर्शन तथा ज्ञान और अन्तराय के दशक इस प्रकार षोडस कर्म सम्पूर्ण रूप से क्षय हो जाते हैं ।
एतत्कर्मरिपून हत्वाः क्षोणमोहो मुनीश्वरः।
उत्पाद्य केवलज्ञानं सयोगी समभूत्तदा ॥७२४॥ इन कर्म रूपी शत्रुओं को मारकर क्षीणमोह मुनीश्वर केवलज्ञान को उत्पन्न कर सयोगी हो जाते हैं।
इति द्वादशं क्षीणकषाय गुणस्थानम् । ततस्त्रयोदशे स्थाने देवदेवः सनातनः।
राजते ध्यानयोगस्य फलादेवाप्तवैभवः ॥७२५॥ १ प्लुष्यकर्म. ख.।