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१६४ तृतीय, चतुर्थ और पाँचवें, इन तीन समयों में औदारिक मिश्र योगी होता है । एक समय में कर्म रुपी शरीर का धारी वह अनाहारक होता है। .
समुद्धातान्निवृत्तोऽथ शुक्लध्यानं तृतीयकम् ।
सूक्ष्म क्रियं प्रपातित्वजितं ध्यायति क्षणं ॥७४४॥ अनन्तर समुद्घात से निवृत्त होकर क्षणभर प्रपातित्व से रहित सूक्ष्म क्रिया नामक तृतीय शुक्लध्यान का ध्यान करता है।
ध्यातुविचेष्टते तस्माच्छ्रक्लध्यानं ततीयकम्।
सूक्ष्मनियाभिधं शुद्ध प्रतिपातित्ववर्जितम् ॥७४५॥ वहां से प्रतिपातित्व से रहित शुद्ध सूक्ष्म क्रिया नामक तृतीय शुक्लध्यान को ध्याने की चेष्टा करता है ।
प्रात्मस्पन्दात्मयोगानां किया सूक्ष्माऽनिवति का।
यस्मिन् प्रजायते साक्षात्सूक्ष्मक्रियानिवर्तकम् ॥७४६॥ जिसमें आत्मस्पन्दात्मक योगों की सूक्ष्म अनिवर्तिका क्रिया उत्पन्न होती है, वह साक्षात् सूक्ष्म क्रिया निवर्तक है ।
बादरकाययोगेऽस्मिन स्थिति कृत्वा स्वभावतः।
सूक्ष्मीकरोति वाक्चित्तयोगयुग्मं स बादरम् ॥७४७॥ स्वभावतः इस बादरकाययोग में स्थिति को करके वह बादर वचन और मन के योग युग्म को सूक्ष्म करता है। .
त्यक्त्वा स्थलं वपर्योगं सूक्ष्म वाविचत्तयोः स्थितम् ।
कृत्वा नयति सूक्ष्मत्वं काययोगं च बादरम् ॥७४८॥ १ श्लोकोऽयं ख-पुस्तकाग्दतः ।