Book Title: Bhav Sangrah
Author(s): Vamdev Acharya, Ramechandra Bijnaur
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 175
________________ - अन्त में उस ध्यान की सामर्थ्य से सूक्ष्म काययोग में स्थित रहता हुआ शीघ्र योगातीत ऊर्ध्व स्थान का आश्रय लेता है। इति त्रयोदशं सयोगिगुणस्थानम् । प्रथोयोगिगुणस्थाने तिष्ठोऽस्य जिनेशिनः । लघुपंचाक्षरोच्चारप्रमितावस्थितिर्भवेत् ॥७५३॥ .. अनन्तर अयोगि गुणस्थान में ठहरते हुए इस जिनेश्वर की लघु पंच अक्षरों के उच्चारण के परिमाण स्थित होती है । तत्रानिवत्तिशब्दान्तं समुच्छिन्न क्रियात्मकम् । चतुर्थ वर्तते ध्यानमयोगिपरमेष्ठिनः ॥७५४॥ वहां पर अनिवृत्ति शब्दान्त समुच्छिन्न क्रियात्मक अयोगी परमेष्ठी का ध्यान होता है । समुच्छिन्नक्रिया यत्र सूक्ष्मयोगात्मिका यतः । समुच्छिन्नक्रियं प्रोक्तं तद्दारं मुक्तिसद्मनः ॥७५५॥ जहां पर सूक्ष्म योगात्मिका समुच्छिन्न क्रिया हो, वह समुच्छिन्न क्रिया कहा गया है। वह मुक्ति रुपी घर का द्वार है । देहास्तित्वेऽस्त्ययोगित्वं कथं तद्धटते प्रभोः । देहाभावे कथं ध्यानं दुर्घटं घटते कथम् ७५६॥ देह का अस्तित्व होने पर अयोगीपना होता है । वह प्रभु के कैसे घटित होता है। देह का अभाव होने पर दुर्घटध्यान कैसे घटता है। द्विकलं

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