Book Title: Bhav Sangrah
Author(s): Vamdev Acharya, Ramechandra Bijnaur
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 169
________________ १६० अनन्तर तेरहवें गुणस्थान में देवों का देव, सनातन, प्राप्तवैभव, ध्यानयोग के फल से ही सुशोभित होता है । भraise freः शुद्धः सम्यक्त्वं क्षायिकं परम् । यथाख्यातं हि चारित्रं निर्ममत्वस्य जायते ॥७२६॥ यहां पर निर्ममत्व के शुद्धक्षायिक भाव, परम क्षायिक सम्यक्त्व और यथाख्यात चारित्र उत्पन्न होता है । यौदाfरकमङ्ग तु सप्तधातुसमन्वितम् । श्रन्यथा तवभूत्तस्मात्परमोदारिकं स्मृतम् ॥७२७॥ सप्त धातु से युक्त जो प्रौदारिक शरीर था, वह अन्य प्रकार का हो जाता है, अतः उसे परमौदारिक कहा है । तेजोमूर्तिमयं दिव्यं सहस्त्रार्कसमप्रभम् । विनष्टाङ्गप्रतिच्छायं नष्टशाविवर्धनम् ॥७२८ ॥ यह शरीर तेजोमूर्ति, दिव्य तथा हजारों सूर्यों की प्रभा के समान आभा वाला हो जाता है । उसके शरीर की छाया नहीं पड़ती है तथा केशों आदि का बढ़ना रुक जाता है । दन्त्यं पदं प्राप्य देवेशोदेवपूजितः । जन्ममृत्युजरातङ्कविच्युतः प्रभवत्यसौ ॥७२६ ॥ आर्हन्त्य पद को पाकर देवपूजित देवेश होता है । वह जन्म, मृत्यु, जरा और रोग से रहित हो जाता है । ज्ञानदृष्ट्या वृतेस्त्यागात्केवलज्ञानदर्शने । उदयं प्राप्नुतस्तस्य जिनेन्द्रस्यातिनिर्मले ॥७३०॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198