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१४६ चार भेद हैं-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत आदि के तीन सालम्बन है, अन्तिम निरालम्ब है ।
पिण्डो देह इति तत्र तत्रास्त्यात्मा चिदात्मकः ।
तस्य चिन्तामयं सद्भिः पिण्डस्थं ध्यानमीरितम् ॥६६१॥ पिण्ड देह है, उसमें प्रात्मा चिदात्मक है। सज्जनों ने उसके विचार को पिडस्थ ध्यान कहा है ।
पंचानां सद्गुरुणां यत् पदान्यालंब्य चिन्तनम् ।
पदस्थध्यानमाम्नातं ध्यानाग्निध्वस्तकल्मषैः ॥६६२॥ पंचपरमेष्ठी (सद्गुरू) के पदों का आलम्बन लेकर जो चिन्तन किया जाता है। ध्यानाग्नि के द्वारा पापों को नष्ट करने वालों ने उसे पदस्थ ध्यान कहा है ।
प्रात्मा देहस्थितो यद्वच्चिन्त्यये देहतोबहिः। तद् रूपस्थं स्मृतं ध्यानं भव्यराजीव भास्करैः ॥६६३॥
देह में स्थित आत्मा का जिसमें देह से बाहर आत्मा का चिन्तन किया जाता है, भव्य जीवों रूपी कमलों के लिए सूर्य के तुल्य भगवान जिनेन्द्र देव ने उसे रूपस्थ ध्यान कहा है।
ध्यानत्रयेऽत्र सालंबे कृताभ्यासः पुनः पुनः । रूपातोतं निरालम्बं ध्यातुप्रक्रमते यतिः ॥६६४॥
इन तीन प्रकार के सालम्बन ध्यानों का जिससे पुनः पुन. अभ्यास किया है, ऐसा यति निरालम्बन रूपातीत ध्यान का उपक्रम करता है। १ 'इतिस्तलस्तत्रा' इति क-पुस्तके ख-पुस्तके तु इति स्तोत्रस्तत्रा इति पाठः।