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१५४ अपान द्वार मार्ग से अपनी इच्छा के अनुसार निकलते हुए ऊपर की ओर गमन करना रोककर मुनि वायु को प्राप्त करता है।
द्वादशाङ्ग लपर्यन्तं समाकृष्य समीरणम् ।
पूरयत्यतियत्नेन पूरकध्यानयोगतः ॥६६७॥ द्वादश अङ्गल पर्यन्त वायु को खींचकर पूरक ध्यान के अत्यन्त यत्नपूर्वक भरता है ।
कुम्भवत्कुम्भकं योगी श्वसनं नाभिपंजे ।
कुम्भक ध्यानयोगेन सुस्थिरं कुरुतेक्षणम् ॥६६८।।
कुम्भ के समान कुम्भक योगी नाभिकमल में श्वास को कुम्भक ध्यान के योग से क्षणभर सुस्थिर करता है ।
निसार्यते ततो यत्नानापिपद्योदराच्छनः ।
योगिना योगसामर्थ्यानेचकाख्यः प्रभंजनः ॥६६॥
अनन्तर धीरे से योगी यत्नपूर्वक नाभिकमल के मध्य से योग की सामर्थ्य से रेचक नामक वायु निकालता है ।
इत्येवं गन्धवाहानामाकंकुचनविनिर्गमौ ।
संसाध्य निलं धत्ते चित्तमेकाग्रचिन्तने ॥७००॥
इस प्रकार वायु के सिकोड़ने और निर्गम को भली-भाँति सिद्ध कर योगी एकाग्रचिन्तन में चित्त को निश्चल बनाता है।
सवितकं सवीचारं सपृथक्त्वमुदाहृतम् । त्रियोगयोगिनः साधोः शुक्लमाद्य सुनिर्मलम् ॥७०१॥