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१५२ चत्तारिवारमुवसमसेढिं समरुहदिखविदकम्मसो।
वत्तीसं वराइं संजम गहदि पुणो लहदि णिव्वाणं ॥१॥ इत्युपशमश्रेणिगुणस्थानचतुष्टयम् ।
प्रतो वक्ष्ये समासेन क्षपकश्रेणीलक्षणन् ।
योगी कर्मक्षयं कतु यामारुह्य प्रवर्तते ॥६८७॥
अनन्तर संक्षेप में क्षपक श्रेणि का लक्षण कहता हूं । जिस पर चढ़कर योगी कर्मक्षय करने में प्रवृत्त होता है ।
प्रायबन्धविहीनस्य क्षीणकर्मांशदेहिनः । प्रसंपत गुणस्थाने नरकायुः क्षयं व्रजेत् ॥६८८॥
आयुकर्म के बन्ध से रहित, क्षीणकर्माश जीव की असंयत गुणस्थान नरकायु क्षय हो जाती है ।
तिर्यगायुः क्षयं याति गुणस्थाने तु पंचमे।
सप्तमे त्रिदशायुश्च दृष्टिमोहस्य सप्तकम् ॥६८९॥ पांचवें गुणस्थान में तिर्यचायु क्षय हो जाती है । सातवें में देवायु तथा दर्शनमोह की सात प्रकृतियाँ क्षय हो जाती है ।
एतानि दश कर्माणि क्षयं नीत्वाथ शुद्धधीः ।
धर्मध्याने कृताभ्यासः समारोहति तत्पदम् ॥६६०॥ शद्ध बुद्धि वाला इन दश कर्मों का क्षय कर धर्मध्यान का अभ्यास करता हुआ उस पद पर (क्षपक श्रेणी पर) आरोहण करता है। १ प्राकृतपंचसंग्रहे तु "संजममुवलहिय णित्वादि" इति पाठः । २ इति ख-पुस्तके नास्ति । ३ बन्धाभावादयत्न साध्य एतदायुः भयोऽत्र ।