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जो पंचाग्नि तप में निष्ठा रखते हैं, मौनहीन भोजन करते हैं, दूसरों के विवादों में जिनकी प्रीति होती है, जिनके अतितीव्र व्यसन होते हैं, जिनका दान सदैव बुरे पात्रों में प्रवृत्त होता है, उनका निश्चित रूप से इन क्षेत्रों में जन्म होता हैं ।
उत्पद्यन्ते ततो मृत्वा भावनादिसुरत्रये । मन्दकषायसद्भावात् स्वभावार्जवभावतः ॥५६३॥
अनन्तर मन्द कषाय के सदभाव से, स्वभाव से सरल भाव से ये मरकर भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होते हैं।
मिथ्यात्वभावनायोगात्ततश्च्युत्वा भवार्णवे ।
वराकाः सम्पतन्त्येव जन्मनक्रकुलाकले ॥५६४॥
वहाँ से च्युत होकर मिथ्यात्व भावना के योग से इन बेचारों का जन्म नक्रों के समूह से व्याप्त संसार रूपी समुद्र में होता है।
अपात्रे विहितं दानं यत्नेनापि चतुर्विधम् ।
व्यर्थीभवति तत्सर्व भस्मन्याज्याहुतिर्यथा ॥५६५॥ जिस प्रकार राख में घी की आहुति सब व्यर्थ जाती है, इसी प्रकार यत्नपूर्वक भी अपात्र में दिया गया चार प्रकार का दान व्यर्थ जाता है।
अब्धौ निमज्जयत्याशु स्वमन्यान्नौषन्मयी। संसाराब्धाषपात्रं तु तादृशं विद्धि सन्मते ॥५६६॥