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तस्मादयिषणाद्य स्तु पापदोषानिकृन्तति । विशुद्धयावश्यकैः षड्मिः मुमुक्षुः स्वात्मशुद्धये ॥६४७॥
अतः विशुद्ध एषणा आदि से मुमुक्षु अपनी आत्मा को शुद्धि के लिए विशुद्ध छः आवश्यकों के द्वारा पाप के दोषों को काटता है।
समता वन्दना स्त्रोत्रं प्रत्याख्यानं प्रतिक्रिया।
व्युत्सर्गश्चेति कर्माणि भवन्त्यावश्य कानि षट् ॥६४८॥ - समता, वदना, स्तोत्र, प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण और व्युत्सर्ग ये छह आवश्यक कर्म हैं ।
आवश्यकान् परित्यज्य निश्चलं ध्यानमाश्रयेत् । नासौं वेत्यागमंजैनं मिथ्यादृष्टिर्भवत्यतः ॥६४६॥
आवश्यकों का परित्याग कर निश्चल ध्यान का आश्रय लेना चाहिये । (ऐसा कहने वाला) कि जैनागम को नहीं जानता है, अतः मिथ्यादृष्टि होता है ।
तस्मादावश्यकैः कुर्यात्प्राप्तदोषनिकृन्तनम्। ।
यावन्नाप्नोति सद्ध्यानं निरालम् सुनिश्चिलम् ॥६५०॥
अतः जब तक निरालम्बन, सुनिश्चल ध्यान नहीं पाता है, तब तक अावश्यकों से प्राप्त दोषों को काटना चाहिए।
सम्यग्जिनागतं ज्ञात्वा प्रोक्ततध्यानसाधनात् ।'
क्षपश्रेणिमारुह्य मुक्तेः सद्वा प्रपद्यते ॥६५१॥ १ दा. ख.। २ प्राप्त ख। ३ त्रिशुद्ध्या ख. ।