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अथ चे निश्चलं ध्यानं विधातुं यः समीहते । ढिकुलीसन्निभं तद्दि जायते तस्यदेहिनः ॥ ६०६॥
जो व्यक्ति निश्चल ध्यान करना चाहता है, वह ध्यान उस प्राणी के (गृह व्यापार से युक्त प्राणी के ) ढ़ेंकुली के सदृश होता है ।
पुण्यहेतुं परित्यज्य शुद्धध्याने प्रवर्तते ।
तत्र नास्त्यधि कारित्वं ततोऽसावुमयोज्झितः ॥ ६१०॥
पुण्य के हेतु का परित्याग करके यदि शुद्ध ध्यान में प्रवृत्त होता है तो उसमें उसका अधिकार नहीं होता । इस प्रकार उसने पुण्यकर्म और शुक्लध्यान दोनों का परित्याग कर दिया ।
त्यक्तपुण्यस्य जीवस्य पापास्रवो भवेद्ध वम् 1 पापबन्धो भवेत्तस्मात् पापबन्धाच्च दुर्गतिः ॥६११॥
जिस जीव ने पुण्यकर्म का परित्याग कर दिया है, उसके निश्चित रूप से पापास्रव होता है । पापास्रव से पापबन्ध होता है और पापबन्ध से दुर्गति होती है ।
पुण्यहेतुस्ततो भव्यैः प्रकर्तव्यो मनीषिभिः । यस्मात्प्रगम्यते स्वर्गमायुर्बन्धोज्झितैर्जनैः ।। ६१२॥
अतः भव्य मनीषियों को पुण्य जिनका हेतु है ऐसे कार्य अवश्य करना चाहिए । जिससे ( मरण करके जीव अगले भव में) स्वर्ग जाते हैं ।