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११६ मनोवा' कायसंशुद्धया दिवा नो भजतेऽङ्गनाम् ।
भण्यतेऽसौ दिवाब्रह्मचारीति ब्रह्मवेदिभिः ॥५३८॥ मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक जो दिन में स्त्रियों का सेवन नहीं करता है, ब्रह्मवेत्ताओं ने उसे दिवा ब्रह्मचारी कहा है।
रात्रौ भुक्ति प्रतिमा। स्त्रीयोनिस्थानसंभूतजीतघातभयादसौ।
स्त्रियं नो रमते त्रेधा ब्रह्मचारी भवत्यतः ॥५३६॥
स्त्री के योनिस्थान में उत्पन्न हुए जीवघात के भय से जो स्त्री के साथ मन, वचन, काय से रमण नहीं करता है, वह इस कारण ब्रह्मचारी होता है ।
__ब्रह्मचर्यप्रतिमा। यः सेवाकृषिवाणिज्यव्यापरत्यजनं भजेत् ।
प्राण्य भिघातसंत्यागादारम्भविरतो भवेत् ॥५४०॥
जो प्राणियों के विघात · का परित्याग करने के कारण सेवा, कृषि, वाणिज्य और व्यापार का परित्याग करता है, वह प्रारम्भविरत होता है।
प्रारम्भरहितप्रतिमा । दशधा ग्रन्थमुत्सृज्य निर्ममत्वं भजन सदा।
सन्तोषामृतसंतृप्तः स स्यात्परिग्रहोज्झितः ॥५४१॥ १ ततो वाक्का. ख.। २ यत्. ख.। ३ प्रणामिघात ख.। ४ भजेत् ख.।