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क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर पहले, तीसरे अथवा चौथे भव में प्राणी मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त अन्य भवों का आश्रय नहीं लेना पड़ता।
प्रातरौद्र भवेद्धयानं तत्र मन्दत्वभागतम् ।
प्रातं चतुर्विधं प्रोवतं रौद्रध्यानं च तद्विधम् ॥४३२॥ वहाँ आर्त और रौद्रध्यान मन्द हो जाते हैं । आर्त्तध्यान चार प्रकार का होता है और रौद्र ध्यान भी चार प्रकार का होता है।
अनिष्टयोगसम्भूतिरिष्टार्थस्य वियोगता।
अप्राप्तिरिच्छि 'तार्थस्य चतुर्थ स्यान्निदानकम् ॥४३३॥ अनिष्ट योगज, इष्ट वियोगज, इच्छित अर्थ की प्राप्ति न होना तथा निदान, इस प्रकार चार तरह का प्रार्तध्यान होता है।
प्रार्तध्यानवशाज्जीवः करोत्यशुभबन्धनम्।
बद्घायुष्को मृति लब्ध्वा तैरची गतिमश्नुते ॥४३४॥
आतध्यान के वश जीव अशुभबन्धन करता है । बद्धायुष्क मृत्यु को प्राप्त कर तिर्यञ्च गति को प्राप्त करता है।
हिसानन्दो मृषानन्दः स्तेयानन्दस्ततीयकः ।
तुर्यः संरक्षणानन्दो रौद्रध्यानस्य पर्ययाः ॥४३५॥
रौद्रध्यान के चार भेद हैं-१. हिंसानन्दी २. मृषानन्दी ३. स्तेयानन्दी और ४. संरक्षणानन्दी । १ रीप्सितार्थस्य. ख.।