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विधायैवं जिनेशस्य यथावकाशतोऽर्चनम् । समुत्थाय पुनः स्तुत्वा जिनचैत्यालयं व्रजेत् ॥५००॥
इस प्रकार यथावकाश जिनेन्द्र भगवान की अर्चनाकर उठकर पुनः स्तुतिकर जिनचैत्यालय में जाए।
कृत्वा पूजां नमस्कृत्य देवदेवं जिनेश्वरम ।
श्रुतं संपूज्य सद्भक्त्या तोयगन्धाक्षतादिभिः ॥५०१॥ देवदेव जिनेश्वर की पूजा कर, नमस्कार कर, जल, गन्ध अक्षतादि से अच्छी भक्ति पूर्वक श्रुत की पूजा करे ।
संपूज्य चरणौ साधोनमस्कृत्य यथाविधि।
प्रार्याणामायिकाणां च कृत्वा विनयमंजसा ॥५०२॥
साधु के दोनों चरणों की अच्छी तरह पूजा करके, यथाविधि नमस्कार कर, आर्यपुरुषों/ऐलक, क्षुल्लक व आयिकाओं की उचित रीति से विनय कर ।
इच्छाकारवचः कृत्वा मिथः सामिकैः समम् ।
उपविश्य गुरोरन्ते सुद्धम शृणुयाद्बुधः ॥५०३॥ परस्पर में साधर्मियों के साथ इच्छाकार वचन करके गुरु के समीप में बैठकर बुद्धिमान सद्धर्म का श्रवण करे ।
देय दानं यथाशक्त्या जैनदर्शनवतिनाम् ।
कृपादानं च कर्त्तव्यं दयागुणविवृद्धये ॥५०४॥ अपनी शक्ति के अनुसार जैनदर्शन को मानने वालों को दान दे तथा दया गुण की वृद्धि के लिए कृपादान करें। १ सद्भव्य; ख.। २ श्लोकोऽयं. ख. पुस्तके नास्ति ।