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अतिथियों का जो संविभाग किया जाता हैं, वह पात्र की अपेक्षा किंचित् विशिष्ट हैं। जिसकी कोई तिथि नियत न हो, वह अतिथि हैं।
अधिकाराः स्युश्चत्वारः संविभागे यतीशिनान् ।
कथ्यमाना भवन्त्येते दाता पात्रं विधिः फलमः ॥५१०॥ यतीश्वरों के संविभाग में ये चार अधिकार कहे गए हैंदाता, पात्र, विधि और फल ।
दाता शान्तो विशुद्धात्मा मनोवाकायकर्मसु ।
दक्षस्त्यागी विनीतच प्रभुः षङ्गणभूषितः ॥५११॥
दाता, शान्त, मन, वचन और कर्मों में विशुद्ध, दक्ष, त्यागी, विनीत और प्रभु । इन छह गुणों से भूषित होना चाहिए।
ज्ञानं भक्तिः क्षमा तुष्टिः सत्वं च लोभवर्जनम् ।
गुणा दातुः प्रजायन्ते षडेते पुण्यसाधने ॥५१२॥ ज्ञान, भक्ति, क्षमा, तुष्टि, सत्व, निर्लोभता। ये छह गुण दाता के पुण्य साधन में निमित्त होते हैं।
पात्रं त्रिविधं प्रोक्तं सत्पात्रं च कुपात्रकम् ।
अपात्रं चेति तन्मध्ये तावत्पात्रं प्रकथ्यते ॥५१३॥ पात्र तीन प्रकार का कहा गया है-सत्पात्र, कुपात्र और अपात्र । इनके मध्य पात्र के विषय में कहा जाता है। १ विज्ञ: ख,।