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कुर्यात्संस्थापनं तत्र सन्निधानविधानकम् ।
नीराजनैश्च निर्वत्त्य जलगन्धादिभिर्यजेत् ॥४८०॥ वहाँ पर संस्थापन करे । सन्निधान विधान और प्रारती आदि से निवृत्त होकर जल, गन्धादि से यजन करे ।
इन्द्राद्यष्ट दिशापालान् दिशाष्टसुःनिशापतिम् । रक्षोवरुणयोर्मध्ये शेषमीशानशकयोः ॥४८१॥ न्यस्याव्हानादिकं कृत्वा कमेणैतान मुदं नयेत् । बलिप्रदानतः सर्वान् स्वस्वमंत्रर्यथादिशम् ॥४८२॥
आठ दिशाओं में इन्द्रादि पाठ दिग्पालों को, राक्षस और वरुण के मध्य में चन्द्रमा को शेष/धरणेन्द्र को ईशान और शक के माध्य में रखकर आह्वानादिक कर क्रम से यथादिष्ट अपनेअपने मंत्रों से इन सबको प्रसन्न करे।
ततः कुम्भं समुद्धार्य तोयचोचेक्षुसद्रसैः।
सदघतच ततो दुग्धैर्दधिभिः स्नापयेज्जिनम् ॥४८३॥ अनन्तर कलश उठाकर जल, नारियल, ईख के उत्तम रस, शुद्ध घी तथा दूध और दही से जिनाभिषेक करे ।
तोयैः प्रक्षाल्य सच्चूर्णैः कुर्यादुद्वर्त्तनक्रियाम् ।
पुनर्नीराजनं कृत्वा स्नानं कषायवारिभिः ॥४८४॥ जलों से प्रक्षालित कर अच्छे चूर्ण से उद्वर्तन क्रिया को करे । पुनः आरती उतारकर गेरुए जल से स्नान कराए।
चतुष्कोणस्थितैः कुम्भस्ततो गन्धाम्बुपूरितैः । अभिषेकं प्रकुर्वीरन् जिनेशस्य सुखार्थिनः ॥४८५॥