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अनन्तर सुखार्थी चारों कोनों पर स्थित सुगन्धित जल से भरे हुए कुम्भों से जिनेश का अभिषेक करें।
स्वोत्तमाङ्ग प्रसिच्याथ जिनाभिषेकवारिणा।
जलगन्धादिभिः पश्चादर्चयेद्विबमर्हतः ॥४८६॥ अनन्तर जिनाभिषेक के जल से अपने सिर को सींचकर जल-गन्धादि से अर्हन्त भगवान् के बिम्ब की अर्चना करे ।
स्तुत्वा जिनं विसापि दिगोशादिमरुद्गणान् ।
अचिते मूलपीठेथ स्थापयेज्जिननायकम् ॥४८७॥ जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति कर दिगीशादि मरुद् गोंण का विसर्जनकर अनन्तर मूल पीठ पर जिननायक की स्थापना करें।
तोयैःकर्मरजःशान्त्य गन्धैः सौगध्यसिद्धये।
अक्षतरक्षयावाप्त्य पुष्पैः पुष्पशरच्छिदे ॥४८॥ कर्म रूपी धूलि की शान्ति के लिए जल से सौगन्ध की सिद्धि के लिए गन्धों से, अक्षयपद की प्राप्ति के लिए अक्षतों से, काम का विनाश करने के लिए पुष्पों से।
चरुभिः सुखसंवृद्धय देहदीप्त्य प्रदीपकः। सौभाग्यावाप्तये धूपैः फलैमोक्षफलाप्तये ॥४६॥
सुख की संवृद्धि के लिए चरु से, देह की दीप्ति के लिए दीपकों से, सौभाग्य की प्राप्ति के लिए धूपों से, मोक्षफल की प्राप्ति के लिए फलों से ।