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बद्ध आयु वाला कोई मनुष्य मृत्यु को प्राप्त कर जिस गति में जाता है, निश्चित रूप से उसी में पूर्णता करता है ।
इत्येकेनैव संयुक्तः स्यादभव्योऽसंयमाव्हयः।
द्वितीयानां कषायाणामुदयादव्रतो हि सः ॥४२३॥ इस प्रकार एक से ही संयुक्त वह भव्य, असंयमी, अप्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों के उदय से अव्रती ही होता है।
प्रशमास्तिक्यसंवेगाः सहानुकम्पया गुणाः ।।
विद्यन्ते हृदये यस्य स स्यात्सम्यक्त्वभूषितः ॥४२४॥ प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुण जिसके हृदय में विद्यमान हैं, वह सम्यक्त्व से भूषित होता है।
ततस्तु व्रतहीनोऽपि प्राणिघाताय नोद्यमी।
प्राणिघातनशीलः स्यात्सम्यक्त्वस्यातिदूरगः ॥४२५॥ व्रत से हीन होने पर भी प्राणिघात के लिये उद्यम न हो । प्राणियों का घात करना जिसका स्वभाव है, वह व्यक्ति सम्यक्त्व से अत्यन्त दूर है।
काकतालीयकन्यायात् सम्यक्त्वं जातमात्रकम् ।
जीवस्यानन्तसंसारं संख्यात्मिकां स्थिति नयेत् ॥४२६ । काकतालीय न्याय से उत्पन्न होने वाला सम्यक्त्व जीव के अनन्त संसार को संख्यात्मक स्थिति में ले आता है। १ याति. क. ।