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वेश्या सेवनादि व्यसनों को छोड़ने वाला शान्त भव्यात्मा पूजक है । वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा सुशील शूद्र होता है । 'जिन संहिता' में कहा है
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः स शूद्रो वा सुशीलवान् ॥ ॥
वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व सुशीलवान् होता है ।
श्रन्येषां नाधिकारित्वं ततस्तैः प्रविधीयताम् ।
जनपूजां विना सर्वा दूरा सामायिकी क्रिया ॥४६६॥
अन्य लोगों की अधिकारता नहीं हैं, अतः उन्हें जिनपूजा के बिना समस्त दूरवर्ती सामायिक क्रियायें करना चाहिए ।
जिनपूजा प्रकर्तव्या पूजाशास्त्रोदितक्रमात् । यथा संप्राप्यते भव्यर्मोक्षसौख्यं निरन्तरम् ॥४६७॥
पूजा शास्त्र में कहे हुए क्रम से जिन पूजा करना चाहिए, जिससे भव्य निरन्तर मोक्ष सुख प्राप्त करे ।
तावत्प्रातः समुत्थाय जिनं स्मृत्वा विधीयताम् । प्राभातिको जिधिः सर्वः शौचाचमनपूर्वकम् ॥४६८॥
प्रातःकाल उठकर जिनेन्द्र भगवान् का स्मरण कर शौच तथा आचमन पूर्वक समस्त प्रातःकालीन विधि करना चाहिए ।
ततः पौर्वाह्निकी सन्ध्याक्रियां समाचरेत्सुधीः । शुद्धक्षेत्रं सामाश्रित्य मंत्रवच्छ द्धवारिणा ॥ ४६६॥
* शूद्र से यहां सत्शूद्र अर्थात् जो जाति से वैश्य है पर चमड़ें आदि का व्यापार करता है । कर्मशूद्र ही यहां इष्ट हैं । जन्म शूद्र कभी पूजा का अधिकारी नहीं है । कुछ लोगों का ऐसा मत है ।