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________________ १०४ वेश्या सेवनादि व्यसनों को छोड़ने वाला शान्त भव्यात्मा पूजक है । वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा सुशील शूद्र होता है । 'जिन संहिता' में कहा है ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः स शूद्रो वा सुशीलवान् ॥ ॥ वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व सुशीलवान् होता है । श्रन्येषां नाधिकारित्वं ततस्तैः प्रविधीयताम् । जनपूजां विना सर्वा दूरा सामायिकी क्रिया ॥४६६॥ अन्य लोगों की अधिकारता नहीं हैं, अतः उन्हें जिनपूजा के बिना समस्त दूरवर्ती सामायिक क्रियायें करना चाहिए । जिनपूजा प्रकर्तव्या पूजाशास्त्रोदितक्रमात् । यथा संप्राप्यते भव्यर्मोक्षसौख्यं निरन्तरम् ॥४६७॥ पूजा शास्त्र में कहे हुए क्रम से जिन पूजा करना चाहिए, जिससे भव्य निरन्तर मोक्ष सुख प्राप्त करे । तावत्प्रातः समुत्थाय जिनं स्मृत्वा विधीयताम् । प्राभातिको जिधिः सर्वः शौचाचमनपूर्वकम् ॥४६८॥ प्रातःकाल उठकर जिनेन्द्र भगवान् का स्मरण कर शौच तथा आचमन पूर्वक समस्त प्रातःकालीन विधि करना चाहिए । ततः पौर्वाह्निकी सन्ध्याक्रियां समाचरेत्सुधीः । शुद्धक्षेत्रं सामाश्रित्य मंत्रवच्छ द्धवारिणा ॥ ४६६॥ * शूद्र से यहां सत्शूद्र अर्थात् जो जाति से वैश्य है पर चमड़ें आदि का व्यापार करता है । कर्मशूद्र ही यहां इष्ट हैं । जन्म शूद्र कभी पूजा का अधिकारी नहीं है । कुछ लोगों का ऐसा मत है ।
SR No.090105
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorVamdev Acharya
AuthorRamechandra Bijnaur
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size10 MB
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