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अनन्तर उत्तम बुद्धि वाला शुद्ध क्षेत्र का आश्रय लेकर मन्त्रयुक्त शुद्धजल से पौर्वाह्रिकी सन्ध्या क्रिया को करे ।
पश्चात् स्नानविधिं कृत्वा धौतवस्त्रपरिग्रहः ।
मंत्रस्नानं व्रतस्नानं कर्त्तव्यं मंत्रवत्ततः ॥४७०॥ पश्चात् स्नानविधि कर, धोए हुए वस्त्र को पहिनकर मन्त्रयुक्त मन्त्रस्नान और व्रतस्नान को करें ।
एवं स्नानत्रयं कृत्वा शुद्धित्रयसमन्वितः।
जिनावासं विशेन्मंत्री सनुच्चार्य निषेधिकाम् ॥४७१॥ मन्त्रयुक्त इस प्रकार तीनों स्नानकर तीनों प्रकार की शुद्धि से युक्त हो 'निःसही' का उच्चारण कर जिनवास में प्रवेश करे।
कृत्वेर्यापथसंशद्धि जिनं स्तुत्वातिभक्तितः।
उपविश्य जिनस्याग्रे कुर्याद्विधिमिमां पुरा ॥४७२॥ ईयपिथसंशुद्धिकर अतिभक्तिपूर्वक जिन स्तुति कर जिनेन्द्र भगवान् के आगे बैठकर पहले इस विधि को करे ।
तत्रादौ शोषणं स्वांगे दहनं प्लावनः ततः ।
इत्येवं मंत्रविन्मंत्री स्वकीवाङ्ग पवित्रयेत् ॥४७३॥
आदि में अपने अङ्ग में शोषण, दहन, प्लावन करके मंत्र को जानने वाला मंत्री अपने अङ्ग को पवित्र करे ।
हस्तशुद्धि विधायाथ प्रकुर्याच्छ कलीकिया।
कूटबीजाक्षरमंत्रर्दशदिग्बंधनं ततः ॥४७४॥
अनन्तर हस्तशुद्धि कर सकलोकरण कर कूट बीजाक्षरों से युक्त दशों दिशाओं के बन्धन को करे ।