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पूजापात्राणि सर्वाणि समीपीकृत्य सादरम् । भूमिशुद्धि विधायोच्चैदर्भाग्निज्वलनादिभिः ॥४७॥ भूमिपूजां च निवृत्य ततस्तु नागतर्पणम् । प्राग्नेय दिशि संस्थाप्य क्षेत्रपालं प्रतृप्य च ॥४७६॥ स्नानपीठं दृढ़ स्थाप्य प्रक्षाल्य शुद्धवारिणा ।
श्रीबीजं च वि िस्यात्र गन्धाद्य सत्प्रपूजयेत् ॥४७७॥ समस्त पूजापात्रों को प्रादरपूर्वक समीपकर दर्भाग्निज्वलनादि से भूमिशुद्धिकर भूमिपूजा और नागतर्पण कर, आग्नेय दिशा में स्थापित कर, क्षेत्रपाल कर तृप्त कर, स्नान के पीठ को स्थापित कर शुद्धजल से धोकर श्री नामक बीजाक्षर को लिखकर गन्धादि से उसकी पूजा करे।
परितः स्नानपीठस्य मुखापितसपल्लवान् ।
पूरितांस्तीर्थसन्तीयः कलशांश्चतुरो न्यसेत् ॥४७८॥ स्नानपीठ के चारों ओर, जिनके मुख पर पत्ते रखे हुए हैं और तीर्थों के जलों से जो भरे हुए हैं, ऐसे चार कलश रखे ।
जिनेश्वरं समभ्यर्च्य मूलपीठोपरिस्थितम् ।
कृत्वाव्हानविधि सम्यक् प्राप्येत्स्नानपीठिका'म् ॥४७॥ मूल पीठ पर स्थित जिनेश्वर की अर्चना कर भले प्रकार आह्वान विधि कर स्नान के पीठ पर पहुंचाए । १. कं. क.।