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उदितास्ते क्षयं याताः स्पर्धकाः सर्वघातकाः । शेषाः प्रशमिताः सन्ति क्षायोपशमिकं ततः ॥ ३६६ ॥
वे सर्वघाती स्पर्द्धक उदित होकर क्षय हो जाते हैं । शेष प्रशमित हो जाते हैं । तब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है ।
यद्वेद्यते चलागाढमालिन्येन पृथक् पृथक् । सम्यक्त्वप्रकृतेः पाकात् तस्मात्तद्वेदका व्हयम् ॥४००॥
सम्यक्त्व प्रकृति के पाक से जो चल, प्रगाढ़ और मलिन रूप पृथक्-पृथक् वेदन होता है, इस कारण वह वेदक सम्यक्त्व ( कहा जाता ) है |
एतत्संसारविच्छित्यै जायते देहिनां खलु । मोढ्यादिदोषनिर्मुक्तं निःशंकाद्यङ्गसंयुतम् ॥४०१ ॥
मूढ़ता आदि दोष से युक्त तथा निःशंकित आदि अंगों से युक्त प्राणियों के संसार को नष्ट करने के लिए होते हैं । सूर्यार्धो वन्हित्कारो गोमूत्रस्य निषेवणम् । तत्पृष्ठान्तनमस्कारो भृगुपादादिसाधनम् ॥ ४०२ ॥
देहलीगेह रत्नाश्वगजशस्त्रादिपूजनम् । नदीहदसमुद्रेषु मज्जनं पुण्यहेतवे ॥ ४०३ ॥
संक्रान्तौ च तिलस्नानं दानं च ग्रहणादिषु । सन्ध्यायां मौनमित्यादि त्यज्यतां लोकमूढ़ताम् ॥४०४॥
सूर्य को अर्ध देना, अग्नि की पूजा करना, गोमूत्र का सेवन करना, गोयोनि को नमस्कार करना, पर्वत आदि से गिरना, देहली, घर, रत्न, घोड़ा, हाथी, शस्त्रादि की पूजा