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द्रव्य अनादि और अनन्त हैं। इन सबमें द्रव्य रूप में होकर भी ध्रौव्य, व्यय और उत्पत्ति स्वभाव वाले हैं।
कालत्रयानुयायित्वं यद्रूपं वस्तुनो भवेत् । तध्रौव्यत्वमिति प्राहुर्वृषभाद्या गणाधिपाः ॥३७॥ वृषभ आदि गणाधिपों ने वस्तु का जो रूप तीन कालों का अनुयायी है, उसे ध्रौव्यपना कहा है।
पूर्वाकारान्यथाभावो विनाशो वस्तुनः पुनः।
अपूर्वाकार संप्राप्तिरुत्पत्तिरिति कोयते ॥३८०॥ वस्तु के पूर्व रूप का अन्य प्रकार से हो जाना विनाश तथा अपूर्व आकार की प्राप्ति उत्पत्ति कही है।
स्वभावेतरपर्याया जीवपुद्गलयोर्द्वयोः ।
विभावपर्यया न स्युः शेषद्रव्यचतुष्टये ॥३८१॥
जीव और पुद्गल दोनों में स्वभाव से भिन्न पर्यायें भी होती हैं, शेष चार द्रव्यों में विभाव पर्याय नहीं होती हैं।
कायत्वमस्ति पंचानां प्रदेशततिसंभवात् ।
नास्ति कालस्य कायत्वं प्रदेशतत्यसंभवात् ॥३८२॥ प्रदेशों का समूह होने से पांच द्रव्यों में कायत्व है। प्रदेशों का समूह न होने से काल का कायत्व नहीं हैं।
धर्माधर्मेक जीवानामसंख्येयप्रदेशता।
पुद्गलानां त्रिधा देशा नभोऽनन्तप्रदेशकम् ॥३८३॥ धर्म, अधर्म और एक जीव के असंख्यात प्रदेश हैं । पुद्गलों के प्रदेश संख्यात, असंख्यात और अनन्त हैं। आकाश अनन्त प्रदेशी है।