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अक्षर्मनोवधिभ्यां वा विशिष्ट वस्तुदर्शनम् ।
तद्दर्शनं भवेत्स्वात्मसंवित्तिः केवलं परम् ॥३४६॥ इन्द्रिय, मन अथवा अवधि से विशिष्ट वस्तु का दर्शन होता है । स्वात्मसंवित्ति केवल दर्शन है ।
स्वयं कर्म करोत्युच्चैः शुभाशुभकल्पतः।
कर्ताऽसौ कथ्यते सभिर्व्यवहारनयाश्रयात् ॥३४७॥
अतिशय शुभाशुभ के विकल्प से जो स्वयं कर्म करता है। सज्जनों के द्वारा व्यवहारनय के प्राश्रय से उसे कर्ता कहा जाता है।
तत्फलं च स्वयं भुवते तस्माद्भोक्तेति भंण्यते।
प्रविस्तारोपसंहाराभवत्यङ्गी तनुप्रमः ॥३४८॥ स्वयं कर्म का फल भोगता है, इसलिए भोक्ता कहा जाता है । जीव विस्तार और संकोच से शरीर परिमाण है ।
स्वभावेनोर्ध्वगा शक्तिस्तस्माद्भवेत्तदात्मकः।
वर्णादिभिविहीनत्वादमूर्तो जायते हि सः ॥३४६॥
जीव की शक्ति स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने की है, अतः ऊर्ध्वगमन स्वभावी है । वर्णादि से विहीन होने के कारण वह अमूर्त होता है।
पंचविधेऽत्र संसारे जीवः संसरति स्वयम् ।
तस्माद्भवति संसारी कृतकर्मप्रचोदितः ॥३५०॥ किए हुए कर्म से प्रेरित हुआ जीव पांच प्रकार के संसार में स्वयं भ्रमण करता है, अतः संसारी होता है ।