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जीव और पुद्गलों को ठहराने में अधर्म द्रव्य निमित्त होता है । जिस प्रकार पथिकों के ठहरने में छाया निमित्त है । चलते हुए जीव पुद्गलों को ठहराने में वह निमित्त नहीं है ।
अध'मः। द्रव्याणामवगाहस्य योग्यं यत्तन्नभो भवेत् ।।
लोकाकाशमलोकात्यमाकाशमिति तद्विधा ॥३६५॥
जो द्रव्यों के अवगाह के योग्य है, उसका नाम आकाश है । आकाश दो प्रकार का है-लोकाकाश और अलोकाकाश ।
आकाशः । वर्णगन्धादिभिमक्ता असंख्याताः सुनिश्चलाः। वर्तनालक्षणोपेता जीवपुद्गलयोः परम् ॥३६६॥ तिष्ठन्त्येकैकरुपेण लोकाकाशप्रदेशकान् ।
व्याप्य कालाणवो मुख्याः प्रत्येकं रत्नराशिवत् ॥३६७॥ जीव और पुद्गल से भिन्न, गन्धादि से रहित, असंख्यात, सुनिश्चल, वर्तनालक्षण से युक्त, लोकाकाश के प्रदेशों को व्याप्त कर एक-एक रूप में मुख्य रूप से ठहरे हुए रत्नों की राशि में एक-एक रत्न के समान ये कालाणु स्थित हैं ।
परिणामः पदार्थानां कालास्तित्वप्रसाधतः ।
अन्यथा नवजीर्णादिपर्यायज्ञानता कथम् ॥३६८॥ पदार्थों का परिणाम काल के अस्तित्व का प्रसाधक है, अन्यथा नई, पुरानी आदि पर्यायों का ज्ञान कैसे होगा ? १-२ इमे शब्दा: क-पुस्तके न सन्ति ।