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सकलाणुव्रते न स्तेनायुर्बन्धो भवेत्क्वचित् । मारणान्तं समुद्धातं न कुर्यान्मिश्रभावतः ॥ ३१८ ॥
मिश्र भाव के कारण समस्त अणुव्रत नहीं है, न क्वचित् आयु का बन्ध होता है और न मारणान्तिक समुद्घात करता है ।
मृत्युं न लभते जीवो मिश्रभावं समाश्रितः । सहष्टिवमदृष्टिर्वा भूत्वा मरणमश्नुते ॥ ३१६ ॥
मिश्र भाव का आश्रय लेने के कारण जीव मृत्यु प्राप्त नहीं करता है । वह सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि होकर मरण करता है ।
सम्यग्मिथ्यात्वयोर्मध्ये येनायुरजितं पुरा ।
म्रियते तेन भावेन गतिं यान्ति तदाश्रिताम् ॥ ३२० ॥
सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के मध्य में पहले जो आयु प्रजित की थी, उसी भाव से मृत्यु प्राप्त प्राप्त करता है और तदाश्रित गति को जाता है ।
मिश्र भावभिमं त्यक्त्वा सम्यक्त्वं भज सन्मते ! । मुक्तिकान्तासुखावाप्त्यै यद्यस्ति विपुला मतिः ।। ३२१॥
हे अच्छी बुद्धि वाले ! मुक्ति रूपी स्त्री के सुख की प्राप्ति के लिए यदि तेरी विपुल बुद्धि है तो इस मिश्र भाव को छोड़कर सम्यक्त्व का सेवन कर ।
इति तृतीयं मिश्रगुण स्थानम् ।
१ याति । २ अयं पाठः क - पुस्तके ३२२ श्लोका दुत्तरं । 'मिश्रगुणस्थानं तृतीयं ' इत्येवं रूप: ख- पुस्तके पाठः ।
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