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अनन्य संभवीशक्ति युक्तस्य पृथिवीपतेः ।
पापं न विद्यते यस्मा त्पापहनता स एव हि ॥१२४॥ पृथ्वीपति की ऐसी शक्ति है, जो अन्य में संभव नहीं लगता है, क्योंकि वह पाप विनाशक है।
शम्भोर्न विद्यते पापं चेत्कथं भ्रमते भवि।
प्रतितीर्थ करालग्न ब्रह मशीर्षस्य हानये ॥१२॥ यदि शम्भु को पाप नहीं लगता है तो करालग्र ब्रह्मशीर्ष की हानि के लिए वह प्रत्येक तीर्थ पर क्यों भ्रमण करता है ?
भ्रमन्प्राप्तः पलाशाख्यं ग्रामं यावत्कपालभृत् ।
वत्सेन तत्र शृंगाभ्यां विदार्य मारितो द्विजः ॥१२६॥ कपाल को धारण करने वाले (शिव) जब भ्रमण करते हुए पलाश नामक ग्राम में पहँचे तो वहाँ पर एक बछड़े ने अपने दोनों सींगों से विदीर्ण कर ब्राह्मण को मार दिया ।
तत्पापात् स्वतनु कृष्णं दृष्ट्वा सोऽथ विनिर्ययौ । निजमातरमा पृच्छय तत्पापोच्छेदनेच्छया ॥१२७॥
उस पाप से अपने शरीर को काला देखकर, वह उस पाप का उच्छेदन करने की इच्छा से अपनी माँ से पूछकर निकला।
गतोऽनुमार्गतस्तस्य वृषभस्य महेश्वरः । गांगं हत्दं प्रविष्टौ द्वौ त्यक्तपापौ बभूषतुः ॥१२८॥
उस बैल के मार्ग का अनुगमन करता हुआ माहेश्वर गया । वे दोनों गंगा ह्रद में प्रविष्ट होकर व्यक्त पाप हो गए। १ तौ ख.।