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इदानींतनमाचारं सुखसाध्यं न शक्यते। तत्परित्यक्तुमस्माभिस्तस्मान्मौनं भजस्व हि ॥२०२॥
हमारा इस समय का आचार सुखसाध्य है, अतः हम इसे छोड़ नहीं सकते हैं । अतः मौन स्वीकार करो।
ततोऽभाणि गणो नैवं सुन्दरं यत्त्वयोदितम् ।
स्वोदरपूर्तये हेतु! हेतुर्मोक्षसाधने ॥२०३॥ तब गणी ने कहा कि जो तुमने कहा है, वह सुन्दर नहीं . है । अपने उदर की पूर्ति का जो हेतु हो, वह हेतु मोक्ष के साधन में नहीं हो सकता है ।
तद्रोषात्पापिना मूर्ध्नि हत्वा दण्डेन मारितः।
मृत्वा चैत्यगृहे तस्मिन्नाचार्यो व्यन्तरोऽभवत् ॥२०४॥ इस बात को सुनकर पापी ने उनके सिर पर डंडे से प्रहार कर मार डाला। उस चैत्यग्रह में मरकर प्राचार्य व्यन्तर हुए।
ततः शिष्यमुख्यं यावत्स्वयं भूत्वा गणाग्रणीः ।
तावशिक्षां पुनातुं प्रारेभे व्यन्तरामरः ॥२०५॥ मुख्य शिष्य स्वयं गण का अग्रणी हुआ, तब व्यन्तर देव ने पुन: शिक्षा देना प्रारम्भ किया।
भोतेन तस्यशान्त्यर्थ काष्ठमष्टांगुलायतम् । चतुरस्र च स एवायमिति संकल्प्य पूजितः ॥२०६॥